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________________ १५४ ] अष्टसहस्री . [ कारिका १० स्वभावत्वेपि नैकान्ततः 'श्रुतिः, सहकारिकारणापेक्षत्वात्, स्वविज्ञानोत्पादने तदश्रुतेरपि तद्वैकल्ये संभवादिति चेत् तहि किमयं शब्द: स्वविषयसंवित्तिकरणे समर्थोऽसमर्थों वा ? स्वसंवित्त्युत्पत्तौ कारणान्तरापेक्षा मा भूत् तत्करणसमर्थस्य । अन्यथा स्वयमसमर्थस्य 'सहकारीन्द्रियमनोभिव्यञ्जक व्यापारलक्षणं' किमस्यासामर्थ्य खण्डयत्याहोस्विन्नेति पक्षद्वितयम् । तदसामर्थ्यमखण्डयदकिञ्चित्करं12 किं सहकारिकारणं मीमांसक- पुरुष व्यापार से पहले और पश्चात् शब्द में श्रावणत्वरूप अखण्डितस्वभाव के होने पर भी एकांततः उनका सुनना नहीं हो सकता है क्योंकि उन शब्दों को सहकारी ताल्वादिकारणों की अपेक्षा रहती है और अपने विज्ञान का उत्पादन करने में उन सहकारीकारणों की विकलता के होने पर उन शब्दों का श्रवण-सुनाई देना नहीं भी होता है। जैन- यदि ऐसी बात है तब तो हम आप से प्रश्न करते हैं कि यह शब्द स्वविषय-स्वयं अपनाशब्द का ज्ञान करने में समर्थ है या असमर्थ ? यदि समर्थ पक्ष लेते हो तब तो "उस स्वविषयस्वयं अपना ज्ञान करने में समर्थ ऐसे शब्द को स्वसंवित्ति की उत्पत्ति में कारणान्तर-ताल्वादि की अपेक्षा मत होवे। अन्यथा"-यदि कहो कि शब्द स्वयं अपनी संवित्ति को करने में असमर्थ हैं, तब तो सहकारी इन्द्रिय और मन जो कि अभिव्यञ्जक व्यापार लक्षण हैं, वे सहकारी कारण इस शब्द की असामर्थ्य का खण्डन करते हैं या खण्डन नहीं करते हैं ? इस प्रकार से ये दो पक्ष आपके सामने रखे गये हैं। ___ "यदि वे सहकारी कारण उसको असामर्थ्य का खण्डन नहीं करते हैं तब तो वे अकिंचित्कर होने से क्या सहकारी कारण कहे जा सकते हैं ? अर्थात् नहीं कहे जा सकते हैं । अथवा यदि आप कहें कि उस असामर्थ्य का खण्डन करते हैं, तब तो स्वभाव की हानि (नाश) हो जावेगी, क्योंकि वह उसका स्वभाव उससे अभिन्न है। यदि आप कहें कि उस शब्द का स्वभाव उससे भिन्न है, तब तो यह उसकी है ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकेगा। अर्थात् शब्द का उसकी असामर्थ्य के साथ भेद होने पर 'शब्द को यह असामर्थ्य है', ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकेगा। और इस प्रकार से पूर्ववत्-प्रधान और उसके परिणाम के भेद के पक्ष के समान ही सभी दोष उपस्थित हो जावेंगे" क्योंकि शब्द और उसकी असामर्थ्य में परस्पर अनुपकारकपना--उपकार न करना समान ही है। अर्थात् जैसे प्रधान और 1 मी० आह । शब्दोनित्यमखण्डितस्वभावो भवतु तथापि शब्दस्य श्रवणमेव इत्येकान्तो न । कुतः श्रुतेः स्वकीयज्ञानोत्पादन आवरणविगमलक्षणसहकारिकारणापेक्षत्वात् । पुनस्तद्विकले सहकारिकारणरहिते सति शब्दस्याश्रुतेरपि घटनात् । इति चेत् । (दि० प्र०) 2 तथाप्येकान्ते न श्रुतिः कुतो न भवेदित्यत आह । (ब्या० प्र०) 3 ताल्वादि । (दि० प्र०) 4 बसः । परिच्छित्ति । (दि० प्र०) 5 स्वसंवित्तिकरणे समर्थः शब्दश्चेत् । तस्य स्वसंवित्त्युत्पादने सहकारिकारणापेक्षा मा भवतु । असमर्थः स्वयं चेत्तदाऽपेक्षा भवतु । (दि० प्र०) 6 असमर्थश्चेत् । (दि० प्र०) 7 श्रोत्रम् । द्वन्द्वः । (दि० प्र०) 8 ताल्वादि । (दि० प्र०) 9 तेषाम् । (दि० प्र०) 10 कर्तृ । (दि० प्र०) 11 शब्दः । (दि० प्र०) 12 असामर्थ्याखण्डनादेव किञ्चित्करं सहकारि। (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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