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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन 1 प्रथम परिच्छे [ १५३ [ आवारकवायुना शब्दस्वभावखण्डनं न भवतीति मान्यतायां विचारः क्रियते जैनाचार्यैः ] स्यान्मतं, यथा' घटादेरात्मानमखण्डयत्तमस्तस्यावरण तथा शब्दस्यापीति', तदसत्', तस्यापि तेनात्मखण्डनोपगमात्, दृश्यस्वभावस्य खण्डनात्तमसस्तदावरणत्वसिद्धेः सर्वस्य परिणामित्वसाधनात् । तमसापि घटादेरखण्डने पूर्ववदुपलब्धिः किन्न भवितुमर्हति, तस्य10 11तेनोपलभ्यतयाप्यखण्डनात्। । ननु च पुरुषव्यापारात्प्राक् पश्चाच्च शब्दस्याखण्डित [ शब्द की आवारकवायु से स्वभाव का खण्डन नहीं होता है, इस पर विचार किया जाता है । ] मीमांसक-जिस प्रकार से अंधकार घटादिक के स्वरूप का खण्डन न करते हुये उनका आवरण करता है उसी प्रकार से ही कोई तिरोधायक (ढकने वाली) वायू शब्द के स्वरूप का खण्डन न करते हुये ही उस पर आवरण करती है। __ जैन- यह कथन भी असत्य ही है। उसमें भी (घट में भी) उसके द्वारा (अंधकार के द्वारा) स्वरूप का खण्डन स्वीकार किया गया है। घट में दश्यस्वभाव का खण्डन करने से ही अंधकार के आवरणपना सिद्ध है, क्योंकि सभी पदार्थ परिणामी हैं हम ऐसा सिद्ध करते हैं। भावार्थ अंधकार यदि घटादिक के दृश्यस्वभाव-दिखनेयोग्य अवस्थाविशेष का खण्डन करता है तब तो पश्चात् भी दीप के द्वारा कैसे दिख सकता है। ऐसी शंका के होने पर आचार्य उसका निराकरण करते हैं, कि अभाव भावान्तर स्वभाववाला है। जैसे कि दीपक के बुझने पर अंधकार का होना यह प्रकाश का अभाव है और वह भावान्तररूप ही है, मतलब जैसे प्रकाश पुद्गल की पर्याय थी वैसे ही अंधकार भी पुद्गल की ही पर्याय है, अतः हमारे यहाँ अभाव भावान्तररूप ही है न कि सर्वथा शून्य-तुच्छाभावरूप, क्योंकि हमारे यहाँ सभी पदार्थ परिणमनशील माने हैं और वे एकपरिणाम (पर्याय) को छोड़कर दूसरी पर्यायरूप परिणमन कर जाते हैं। इसी का नाम व्यय एवं उत्पाद है तथा पदार्थ दोनों अवस्थाओं में ध्रौव्यरूप से बना रहता है, इसीलिये वह परिणामी है और पर्यायें उसके परिणाम हैं। "यदि अंधकार से भी घटादि के स्वरूप का खण्डन नहीं मानोगे तब तो पूर्ववत् उसकी उपलब्धि क्यों नहीं होती ?" क्योंकि उस घट का उस अंधकार ने उपलभ्यता प्राप्त होने योग्य स्वभाव से भी खण्डन नहीं किया है। 1 मी० यथा तमो घटादे: स्वरूपं न खण्डयति परन्तु तस्यावारकं भवति । तथा वायुविशेषोपि शब्दस्वरूपं न खण्डयति आवारको भवतीति चेत् । (दि० प्र०) 2 आत्मानमखण्डयन् वायुविशेषस्तस्यावरणम् । (दि० प्र०) 3 स्याद्वादी। (दि० प्र०) 4 स्वरूपम् । (दि० प्र०) 5 स्याद्वादिभिः। (दि० प्र०) 6 नाशनात् । (ब्या० प्र०) 7 कुतः । (ब्या० प्र०) 8 न केवलं शब्दस्य वायुना । (ब्या० प्र०) 9 दृश्यस्वभावतया। (ब्या० प्र०) 10 घटादेः । (दि० प्र०) 11 न केवलं घटरूपेण । (ब्या० प्र०) 12 दृश्यत्वेन । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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