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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १४६ यथा गगनं, तथा च घटादिकं, तस्मात्कार्यमित्यनुमानात् । न चात्रासिद्ध साधनं कादाचित्कत्वात्, तस्यानपेक्षितपरव्यापारत्वे कादाचित्कत्वविरोधादाकाशवत् । तदाविर्भावस्य कादाचित्कत्वादपेक्षितपरव्यापारत्वं, न तु घटादेरिति चेत् कोयमाविर्भावो नाम ? प्रागनुपलब्धस्य व्यञ्जकव्यापारादुपलम्भ' इति चेत् स 'तहि प्रागसन् कारणः क्रियते, न पुनघटादिरिति स्वरुचिवचनमात्रम् । अथ तस्यापि 'प्राक्तिरोहितस्य' सत एव 'कारणरा जैन तब तो वह आविर्भाव पहले असत्रूप होता हुआ दण्ड चक्रादि कारणों से किया जाता है, किन्तु घटादिक नहीं किये जाते हैं, जो कि आविर्भाव से अभिन्न ही हैं, अतएव आपका यह कथन स्वरुचिवचनमात्र है । अर्थात् केवल इच्छानुसार ही कथन है न कि वास्तविक। यदि आप कहें कि वह आविर्भाव भी जो कि पहले तिरोहित था एवं सत्रूप था, वही कारणों के द्वारा आविर्भावान्तर-भिन्न आविर्भावरूप स्वीकार किया गया है तब तो उस आविर्भावान्तर में अन्य आविर्भाव की कल्पना एवं उसमें अन्य की कल्पनारूप आविर्भावों की कल्पनायें करने से अनवस्था आ जावेगी। पुन: कदाचित् भी घटादि का आविर्भाव नहीं हो सकेगा। सांख्य आविर्भाव तो उपलब्धिरूप है और उसमें तद्रूप- उपलब्धिरूप भिन्न आविर्भाव की अपेक्षा नहीं है। जैसे कि प्रकाश प्रकाशान्तर की अपेक्षा नहीं करता है इसीलिये अनवस्थादोष नहीं आता है। जैन-तब तो आप सांख्यों को उस आविर्भाव का आत्मलाभ-उत्पन्न होना कारण से ही मानना चाहिये । पुनः कार्य ही आविर्भावरूप सिद्ध हो गया, न कि व्यक्त होने योग्य पदार्थ। उसी प्रकार से घटादिक भी कार्य ही हैं, न कि व्यङ्गयरूप, क्योंकि अपनी उत्पत्ति में परव्यापार की अपेक्षा उनमें समान ही है । एवं जिसने आत्मलाभ प्राप्त नहीं किया है, उसकी उपलब्धि करना भी शक्य नहीं है अन्यथा सर्वतः अतिप्रसंग दोष आ जावेगा। अर्थात् शशविषाण की उपलब्धि का प्रसंग हो जावेगा। अतएव प्रधान के परिणामरूप से भी स्वीकार किये गये जो घटादिक हैं, वे कार्यद्रव्य कहे जाते हैं। और उनके प्रागभाव का अपह्नव करने पर उनमें अनादिपने का प्रसंग आ जाता है । पुनः कारणव्यापार भी अनर्थक सिद्ध हो जाता है अतएव हमने जो यह दूषण दिया है वह ठीक ही है। अथवा पहिले तिरोभाव को स्वीकार करने पर वह तिरोभाव ही प्रागभाव सिद्ध हो जाता है और उस प्रागभाव को ही तिरोभाव ऐसा भिन्न नाम करने पर दोष का अभाव ही है, जैसे कि उत्पाद का आविर्भाव यह भिन्न नामकरण किया है। अर्थात् घट होने से पहले मिट्टी में घट का तिरोभाव है, ऐसा यदि आप कहते हैं तब तो वह तिरोभाव ही प्रागभाव है नाममात्र का भेद है। अतएव 1 घटादि। (दि० प्र०) 2 घटादेः। (दि० प्र०) 3 आत्मलाभः । (दि० प्र०) 4 उपलम्भः । (दि० प्र०) 5 आविर्भावात् । (दि० प्र०) 6 स्या० हे सांख्य घटादेः प्रादुर्भाव: तिरोहितः सोऽत्र क्षण एव कारणैः क्रियमाण आविर्भावान्तरमपेक्षते नापेक्षते वेति विचारो नापेक्षत इति पक्षः सांख्य भ्युपगम्यते । अपेक्षते चेत्तदा सोप्याविर्भावोऽन्यमाविर्भावमपेक्षते सोप्यन्यं सोप्यन्यमित्याद्यनवस्थापादनं स्यात् तस्यां सत्यां न कदाचिद् घटादेराविर्भावः स्यात्तिरोभाव एव । तथा नास्ति लोके । (दि० प्र०) 7 उपलम्भ: । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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