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________________ अष्टसहस्री [ कारिका १० १४८ ] [ सांख्येन कार्यस्यास्वीकारे जैनाचार्याः तत् साधयंति ] ननु कार्यद्रव्यमसिद्धं कापिलानां, 'कथमनादिग्रन्थकारेणापाद्यते' इति चेत्प्रमाणबलातकार्यत्वं द्रव्यस्यापाद्य 'तथाभिधानाददोषः । कथं कार्यत्वमापाद्यते 'प्रागभावानभ्युपगमवादिनं प्रतीति चेत्, कार्य घटादिकम्, अपेक्षितपरव्यापारत्वात्, यत्तु न कार्य तन्न "तथा दृष्टं [ सांख्य कार्यद्रव्य को नहीं मानता है उस पर विचार ] सांख्य-हम सांख्यों के यहाँ तो कार्यद्रव्य ही असिद्ध है, पुनः ग्रन्थकार उसमें अनादिरूप दोष का आपादन-प्रतिपादन क्यों करते हैं जैन-ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रमाण के बल से द्रव्य में कार्यपने का आपादन (प्रतिपादन) करके उस प्रकार से कथन किया गया है, अतः कोई दोष नहीं है। ___सांख्य-प्रागभाव को नहीं स्वीकार करने वाले वादियों के प्रति आप कार्यत्व का आपादन क्यों करते हैं ? जैन-यदि आप ऐसा प्रश्न करते हैं, तो उसे हम अनुमानप्रमाण से सिद्ध करते हैं । “घटादि पदार्थ कार्यरूप हैं क्योंकि वे परव्यापार की अपेक्षा रखते हैं । जो कार्य नहीं हैं, वे उस प्रकार पर के व्यापार की अपेक्षा रखते हुये नहीं देखे जाते हैं, जैसे आकाश और घटादिक उस प्रकार के हैं इसीलिये वे कार्य हैं।" इस अनुमान से कार्यद्रव्य की सिद्धि हो जाती है । यदि आप कहें कि इसमें साधन-परव्यापारापेक्षित्व हेत असिद्ध है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि वे घटादिक कादाचित्क--कभी-कभी होते हैं और वे घटादि यदि परव्यापार की अपेक्षा नहीं रखेंगे, तो उनमें कादाचित्कपने का विरोध आ जावेगा । जैसे कि आकाश में परव्यापार की अपेक्षा न होने से कादाचित्क-अनित्यत्व का विरोध है। अर्थात आकाश नित्य होने से परव्यापार की अपेक्षा नहीं रखता है, अतः वह कभी-कभी होवे ऐसा तो है नहीं, वह हमेशा ही विद्यमान रहता है। सांख्य-उन घटादिकों का आविर्भाव कादाचित्क है और वह आविर्भाव ही परव्यापार की अपेक्षा रखता है न कि घटादिक पदार्थ । जैन- यह आविर्भाव क्या चीज है ? सांख्य-प्राक् अमुपलब्ध घटादिकों का चक्रदण्डादिक व्यञ्जकव्यापार से उपलब्ध होना ही आविर्भाव है। 1 सांख्यः । (दि० प्र०) 2 कार्यद्रव्यम् । (दि० प्र०) 3 श्रीसमन्तभद्रस्वामिना । (दि० प्र०) 4 अपाद्यत इति तथा इति पा० । (दि० प्र०) 5 सांख्यमीमांसादिकम् । (दि० प्र०) 6 अपेक्षित परव्यापारम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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