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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १३५ / प्रागसन् क्रियते । 'तदभिव्यक्तिस्तु पौरुषेयी । सा प्रागसती क्रियते इति कथं स्वरुचिविरचितस्य दर्शनस्य' प्रदर्शनमात्रं, प्रमाणशक्तिविरचितस्य' तथा दर्शनस्य प्रदर्शनादिति चेन्न, 'शब्दादभिन्नायास्तदभिव्यक्तेरप्यपौरुषेयत्वात् । तस्याः पौरुषेयत्वात्प्रागसत्त्वे तदभिन्नस्य शब्दस्यापि तत एव प्रागसत्त्वमनुमन्यतां विशेषाभावात् । शब्दाद्भिन्नैवाभिव्यक्तिरिति चेत् । अर्थात् - आपने जब अभिव्यक्ति का प्रागभाव स्वीकार कर लिया है पुनः ऐसा कहें कि तालवादिमात्र अभिव्यक्ति को ही करते हैं शब्द को नहीं । यह एक स्वदर्शन का हो व्यामोह है, क्योंकि शब्द में और उसकी अभिव्यक्ति में परस्पर में धर्म-धर्मिभाव होने से अभिन्नता है । अतः प्रागसतीपहले अभावरूप अभिव्यक्ति का होना इसका तात्पर्य यह है कि तात्वादि द्वारा शब्द की उत्पत्ति ही होती है न कि प्रगटता । मीमांसक - हम लोगों ने शब्द को अपौरुषेय (नित्य) स्वीकार किया है अतः वह शब्द प्रागसत्रूप से पहले असत्रूप थे पुनः किये नहीं जाते हैं परन्तु उन शब्दों की अभिव्यक्ति तो पौरूषेयी- पुरुष - व्यापारकृत है अतः वह शब्द की अभिव्यक्ति प्रागभावरूप है और वही की जाती है । इस प्रकार का जो कथन है वह मनगढ़ंत रूप शास्त्रों का प्रदर्शन मात्र है, ऐसा कैसे कहा जायेगा अर्थात् प्रामाणिक क्यों नहीं रहेगा । तथा "अभिव्यक्ति प्रागभावरूप है अतः वह की जाती है, पुनः शब्द प्रागभावरूप नहीं होने से नहीं किये जाते हैं" यह हमारा सिद्धान्त प्रमाणशक्ति से रचित सहित ही है और उसी के अनुसार हमारा कथन है । जैन - आपका यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि वह अभिव्यक्ति शब्द से तो अभिन्न ही है, अतः वह भी अपौरुषेय हो जावेगी । अर्थात् शब्द की अभिव्यक्ति शब्द से अभिन्न होने से वह भी पुरुषव्यापारकृत सिद्ध नहीं हो सकेगी। यदि आप कहें कि वह अभिव्यक्ति प्रागभावरूप होने से पौरुये है तब तो उस अभिव्यक्ति से अभिन्न जो शब्द हैं, वे भी पौरुषेय हो जायेंगे । पुनः उन शब्दों का भी प्रागभाव स्वीकार कीजिये क्योंकि दोनों ही समान हैं अर्थात् दोनों ही पौरुषेय एवं अनित्य सिद्ध हो गये हैं । भावार्थ - शब्द तो मीमांसकमत की अपेक्षा अपौरुषेय हैं, अतः उनका प्रागभाव तो हो नहीं सकता । जब इनका प्रागभाव नहीं है, तो ये असत् भी नहीं हो सकते एवं जब असत् नहीं हैं, तब शब्दों को असत् मानकर तालु आदिकों के द्वारा उनकी उत्पत्ति मानना सर्वथा अयुक्त है तथा च अभिव्यक्ति पौरुषेयी - ( पुरुषकृत) है, वह अनित्य होने से प्रागभावरूप मानी गई है । अतः तालु आदि व्यापार से यह अभिव्यक्ति ही की जाती है, शब्द से नहीं यह मीमांसक का कथन हुआ 1 शब्दः । ( दि० प्र० ) 2 मतस्य । ( ब्या० प्र० ) 3 पौरुषेयापौरुषेयत्वाभ्याम् । ( दि० प्र० ) 4 आह स्या० हे मीमांसक ! भवदभ्युपगताच्छन्दाच्छन्दाभिव्यक्तिरभिन्नाभिन्ना वेति विचार: । ( दि० प्र० ) 5 अभिव्यक्ति: प्रागसती क्रियते न पुनः शब्द एवेति प्रकारेण । ( दि० प्र० ) 6 मीमांसकेन धर्मधर्मिणोस्तादात्म्याभ्युपगमात् । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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