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________________ १३४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० ददोष इति चेन्न, तस्य 'विरुद्धत्वात्, शब्दस्याभिव्यक्तेः पूर्व सर्वथा सत्त्वात्साध्याद्विपरीतेन कथञ्चित्सत्त्वेन व्याप्तत्वादन्यथा प्रत्यभिज्ञायमानत्वाद्यनुपपत्तेः । ततोभिव्यङ्गयविलक्षणत्वान्न शब्दस्याभिव्यक्तिकल्पना युक्ता। एतेन कुम्भकारादिव्यापाराद् घटाद्यभिव्यक्तिकल्पना प्रत्युक्ता । कल्पयित्वापि तदभिव्यक्तिं तस्याः प्रागभावोङ्गीकर्तव्यः । तथा हि। सतः शब्दस्य ताल्वादिभिरभिव्यक्तिः प्रागसती क्रियते, न पुनः शब्द एवेति स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्रम् । ननु च मीमांसकैः शब्दस्यापौरुषेयत्वप्रदर्शनान्नासौ जैन—ऐसा भी आप नहीं कह सकते हैं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञानादि प्रमाण विरुद्ध हैं कारण कि इस प्रत्यभिज्ञानादि प्रमाण की व्याप्ति शब्द की अभिव्यक्ति के पहले सर्वथा सत्त्वरूप साध्य से विपरीत, कथंचित्सत्त्व के साथ पाई जाती है । यदि ऐसा नहीं मानो तो प्रत्यभिज्ञायमान हेतु की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। अर्थात शब्द को नित्य साध्य करने में आपका साध्य तो "सर्वथा नित्य" है। द्गलद्रव्य की अपेक्षा शब्द सत्रूप है, तथा पर्याय की अपेक्षा असतरूप है, एवं नित्य की कथंचित सत के साथ व्याप्ति हो जाती है अतः आपका हेतु विरुद्धहेत्वाभास है और सर्वथा नित्यरूप शब्द को प्रत्यभिज्ञानप्रमाण भी ग्रहण नहीं कर सकेगा। इसीलिये अभिव्यंग्य-प्रकट होने योग्य जो घट पटादि पदार्थ हैं उनसे विलक्षण होने से शब्द में अभिव्यक्ति की कल्पना करना युक्त नहीं है, किन्तु उस शब्द का सत्त्व तो नित्य ही है, ऐसी ही कल्पना ठीक हो सकती है। और इसी कथन से ही "कुंभकार आदि के व्यापार से घटादिरूप कार्यों की अभिव्यक्ति होती है न कि उत्पत्ति" ऐसी कल्पना करने वाले सांख्यों का भी खंडन किया गया समझना चाहिये। ___ अथवा “उस शब्द की अभिव्यक्ति की कल्पना करके भी उस अभिव्यक्ति का प्रागभाव तो स्वीकार करना ही चाहिये (अन्यथा सर्वथा हो शब्द श्रवण का प्रसंग हो जावेगा क्योंकि श्रावणत्वरूप अभिव्यक्ति नित्य ही है। ) और वैसा मान लेने पर विद्यमानरूप-सत्रूप शब्द की तालु आदि के द्वारा अभिव्यक्ति जो प्रागसत्रूप थी वही की जाती है किन्तु शब्द ही नहीं किये जाते हैं। यह कथन तो स्वरुचिविरचितदर्शन-अपने मन के अनुकूल बनाये गये शास्त्रों का प्रदर्शन करना मात्र 1 ताल्वादिव्यापारात्पूर्व शब्दस्य सद्भावः प्रत्यभिज्ञायमानत्त्वादित्यस्य हेतोः । (ब्या० प्र०) 2 आह मीमांसकः, हे स्याद्वादिन् ! शब्दाभिव्यक्तेः प्राक् शब्दस्य सद्भावग्राहकं प्रत्यभिज्ञानादिकं प्रमाणमस्ति तद्बलाच्छब्दाभिव्यक्तिः कल्पनाकरणे न दोषः । स्या० न । कुतः । तस्य प्रत्यभिज्ञानस्य विरुद्धत्त्वात् कथमित्त्याह । हे मीमांसक ! शब्दाभिव्यक्तेः प्राक शब्दस्य सर्वथा सत्त्वं कथञ्चित् सत्त्वं वेति विचारः । सर्वथा सत्त्वं चेत्तदाऽपरिणामित्त्वात् स एवायं शब्द इति पूर्वोत्तरकालकोटिद्वयग्राहकलक्षणस्य प्रत्यभिज्ञानस्य गृहीतुं न शक्यम् । कथञ्चित्सत्त्वं चेत्तदा स्याद्वादप्रवेशे न स्वमतहानि: ।=एवं प्रत्यभिज्ञानस्य शब्दाभिव्यक्ते: प्राक् सर्वथा सत्त्वाच्छब्दात्कथञ्चित्सत्त्वेन विपरीतेन व्याप्तत्वात् = अन्यथा प्रत्यभिज्ञानस्य कथञ्चित्सत्त्वेन व्याप्तत्त्वं बिना प्रत्यभिज्ञानत्वमेव न जायते । (दि० प्र०) 3 मीमांसकानां पुरुषस्य ताल्वादिव्यापारात् शब्दाभिव्यक्तिप्रकारेण । (दि० प्र०) 4 सांख्यस्य । (दि० प्र०) 5 शब्दः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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