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________________ १३२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० अनादि संतति की निवृत्ति के साथ-साथ प्रागनन्तर पर्याय की भी निवृत्ति होनी चाहिये तभी घट कार्य उत्पन्न होता है अतः अनादि सन्तति में घटोत्पत्ति प्रसंग दोष हमारे यहाँ कथमपि शक्य नहीं है । एवं "मृदादि द्रव्य घटादि के प्रागभाव हैं" ऐसा द्रव्याथिक नय से कहने पर भी प्रागभाव का अभावस्वभाव घट में दूर्घट नहीं है कि जिससे द्रव्य का अभाव असम्भव होने से कदाचित् भी घट की उत्पत्ति न हो सके अर्थात् घटोत्पत्ति सुघटित ही है क्योंकि मदादि द्रव्य से घट पर्याय रूप कार्य की उत्पत्ति के होने पर मत्पिड रूप पर्याय का विनाश सिद्ध ही है अर्थात् कार्य की उत्पत्ति ही उपादानात्मक प्रागभाव का क्षय है । प्रागभाव को अनादि होने से अनन्तपने का दोष आवे यह भी शक्य नहीं है क्योंकि भव्य जीवों का संसार अनादि होते हुये भी सांत देखा जाता है। नैयायिक-प्रागभाव भाव स्वभाव न होकर भाव से विलक्षण है और वह पदार्थ का विशेषण सिद्ध है । अभाव चार भेद रूप हैं किन्तु सत्प्रत्यय एक होने से सत्ता एक ही है । जैन—यह सभी कथन गलत है प्रागभाव भाव स्वरूप है तुच्छाभाव रूप नहीं है । वह भाव (सत्ता) के समान एक अनेक स्वभाव वाला भी है द्रव्य की अपेक्षा से एक स्वभाव एवं शक्ति की अपेक्षा से अनेक स्वभाव वाला है। प्रध्वंसाभाव का लक्षण आदि चार्वाक प्रध्वंसाभाव को नहीं मानता है उसको समझाते हुये जैनाचार्य कहते हैं कि हमारे यहाँ नय प्रमाण की अपेक्षा से प्रध्वंसाभाव भी सिद्ध है । सुनिये ! ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से उपादेय क्षण कार्यरूप कपाल माला है वही उपादान रूप घट का प्रध्वंस है । घट के प्रध्वंस से जो कपाल उत्पन्न हुये हैं वे घटरूप उपादान कारण से हुए हैं। इन कपालों के जो उत्तर क्षण रूप अन्य-अन्य खण्ड हैं वे कपालमाला रूप अपने उपादान से उत्पन्न हये हैं अतः ये कार्य हैं। “अब इनमें घटोत्पत्ति प्रसंग" इसलिये नहीं है कि घट रूप कारण कार्य का उपमर्दन नहीं करते हैं किन्तु कार्य ही अपने कारण का उपमर्दक माना गया है। अतएव उत्तरक्षणों में पुनः घटोत्पत्ति के प्रसंग आदि दोष हमारे यहाँ सम्भव नहीं हैं। प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव उपादान उपादेयरूप हैं अभाव में उपादान, उपादेय भाव कैसे होगा? यह प्रश्न भी हमारे यहाँ नहीं होता है क्योंकि हमने अभाव को भावान्तर रूप से माना है न कि तुच्छाभाव रूप । नैयायिकाभिमत निःस्वरूप-तुच्छाभाव रूप अभाव में तो उपादान उपादेयभाव दुष्कर ही है। मीमांसक के यहाँ भी प्रागभाव को स्वीकार न करने पर शब्द अनादि हो जावेंगे पुनः तालु कंठ आदि के प्रयत्न निष्फल हो जावेंगे। इत्यादि प्रागभाव के लोप करने पर कार्य अनादि हो जावेंगे। एवं प्रध्वंसाभाव के न मानने पर सभी कार्य अनन्त हो जावेंगे। अतः दोनों ही भाव स्वभाव हैं, वस्तु के धर्म हैं। उपसंहार-चार्वाक ने प्रागभाव को नहीं माना है एवं नैयायिक प्रागभाव को भाव स्वभाव नहीं मानते हैं। जैनाचार्यों ने इन दोनों को वास्तविक रीति से प्रागभाव का लक्षण समझाया है। प्रध्वंसाभाव को भी चार्वाक स्वीकार नहीं करता है। जैनाचार्यों ने उसे यह बताया है कि प्रध्वंस को माने बगैर घड़ा कभी फूटेगा ही नहीं । परन्तु ऐसा होता नहीं अतः प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव ये दोनों ही वस्तु के धर्म हैं ऐसा समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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