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________________ सारांश ] प्रथम परिच्छेद [ १३१ प्रागभाव प्रध्वंसाभाव की सिद्धि का सारांश चार्वाक प्रागभाव को स्वीकार ही नहीं करता है जैनाचार्य का कहना है कि "कार्य का अपनी उत्पत्ति के पहले न होना" प्रागभाव है । वह "कार्योत्पत्ति के पहले का अनन्तर (अन्तिम) परिणाम ही है" जैनों की इस मान्यता को चार्वाक स्वीकार नहीं करता है। चार्वाक-आप जैनों के यहाँ प्राक् के अन्तिम परिणाम को ही प्रागभाव कहने से उसके पहले की अनादि परिणाम सन्तति में कार्य के सद्भाव का प्रसंग आ जावेगा। अर्थात् कुम्भकार ने घट बनाने के लिये मृत्पिड को चाक पर रखा, चाक घूम रहा है घटोत्पत्ति के पूर्व शिवक, छत्रक, स्थास, कोश, कुशूल आदि अनेक पर्यायें हैं वे प्रागभाव रूप नहीं हैं क्योंकि अन्तिम क्षण में ही आपने प्राग्भाव माना है अतः उनमें घट की उत्पत्ति का प्रसंग आ जावेगा। यदि आप कहें कि अनादि पूर्व परिणाम सन्तति और कार्य का परस्पर में इतरेतराभाव है अतएव उन-उन पूर्व पर्यायों में घट का उत्पाद सम्भव नहीं है तब तो अनन्तर परिणाम के होने पर भी इसी इतरेतराभाव से ही कार्य (घट) का अभाव सिद्ध हो जावेगा। अतः प्रागभाव की कल्पना व्यर्थ ही है। जैनाचार्य-हम स्याद्वादियों के यहाँ इन दोषों को अवकाश नहीं है क्योंकि ऋजूसूत्र नय की अपेक्षा से पूर्व का अनन्तर स्वरूप-अव्यवहित रूप कार्य का उपादान परिणाम ही प्रागभाव है । पुनः जो आपने दूषण दिया है कि "पूर्व-पूर्व की अनादि परिणाम संतति में स्थास, कोश, कुशूल आदि में कार्य-घट के सद्भाव का प्रसंग आवेगा" सो भी कथन ठीक नहीं है क्योंकि हमने मृत्पिड के प्रध्वंस रूप प्रागभाव के विनाश को ही कार्य रूप से स्वीकार किया है अतएव प्रागभाव और उसके पहले के गभावादि जो कि पर्व-पर्व पर्याय रूप हैं तथा संतति की अपेक्षा से जो अनादि है उनमें विवक्षित घट रूप कार्यरूपता का अभाव है अतः जो आपने "अनादि परिणाम सन्ततियों में विवक्षित कार्य का आवनाभाव कल्पित किया था" वह भी गलत है क्योंकि प्रागभाव और उसके पहले के भी भावादि में हमने इतरेतराभाव माना ही नहीं है। अतः आपके द्वारा आरोपित दोष असम्भव है। प्रागनन्तरअव्यवहित पर्याय को ही प्रागभाव मानने पर हमारे यहाँ अनादि का भी विरोध नहीं है क्योंकि प्रागभाव और उनके पूर्व-पूर्व प्रागभावादि जो कि प्रागभाव की संतानमाला रूप से हैं उनकी अपेक्षा से प्रागभाव अनादि है । इस प्रकार संतान से संतानी सर्वथा भिन्न है या अभिन्न ? इत्यादि दोष हमारे यहाँ नहीं हैं क्योंकि हमने सन्तान से सन्तानी को-द्रव्य से पर्यायों को कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न रूप माना है क्योंकि पूर्व-पूर्व के प्रागभाव रूप जो भाव क्षण हैं एवं जो भेद विवक्षा से रहित हैं उन्हें ही सन्तान रूप से माना है किन्त सन्तानी क्षण रूप पर्यायों की अपेक्षा से तो प्रागभाव को अनादि नहीं मानने से कोई दोष नहीं है। अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से प्रागभाव सादि ही है, द्रव्य दृष्टि से अनादि है क्योंकि ऋजुसूत्र तो क्षणध्वंसि एक समयवर्ती पर्याय को ही विषय करता है। यदि प्रागनन्तर पर्याय रूप प्रागभाव का प्रध्वंस नहीं हुआ है और चाहे समस्त अन्य प्रागभावों की निवृत्ति हो जाती है तो भी विवक्षित कार्य (घट) नहीं होता है कारण उन सब प्रागभाव से इष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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