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________________ प्रागभावसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १२५ त्पत्त्ययोगात्, कार्योत्पत्तेरेवोपादानात्मकप्रागभावक्षयस्य वक्ष्यमाणत्वात् । तथा प्रमाणार्पणाद्रव्यपर्यायात्मा 'प्रागभाव इत्यभिधानेपि नोभयपक्षोपक्षिप्तदोषानुषङ्गः, प्रागभावस्य द्रव्यरूपतयेव पर्यायरूपतयाप्यनादित्वनिरूपणात् । न 'चानादेरनन्ततैकान्तः 'सिध्यति, भव्यजीवसंसारस्यानादित्वेपि सान्तत्वप्रसिद्धः, 1 अन्यथा कस्यचिन्मुक्त्ययोगात् । नापि सान्तस्य सादित्वकान्तः, कस्यचित्संसारस्य सान्तत्वेप्यनादित्वप्रसिद्धः । ततो न सर्वदा कार्यानुत्पत्तिः पूर्वमप्युत्पत्तिर्वा घटस्य 1 दुनिवारा स्यात् । ततो 13भावस्वभाव एव प्रागभावः । स 14चैकानेक बन सकेगा। यदि प्रागभाव को अनादि अनन्त कहो तब तो मिट्टी में अनादिकाल से घट का प्रागभाव यानी घट नहीं होने देनेरूप शक्ति विद्यमान है और अब उसको अनन्त कहने से उसका नाश ही नहीं होगा अतः मिट्टी से घट कभी भी नहीं बन सकेगा, एवं बीज से वृक्ष कभी भी नहीं बनेगा । यदि चौथे विकल्परूप प्रागभाव को अनादि सांत कहो तब तो जैसे मिट्टी से घट उत्पन्न होता है वैसे ही विश्व के सारे कार्य एक साथ हो जावेंगे क्योंकि जैसे आप नैयायिकों के यहाँ सत्ता एक है वैसे ही प्रागभाव भी एक ही है । इस पर नैयायिक झट बोल पड़ा कि नहीं नहीं ! हमने प्रागभाव अनन्त माने हैं। इस पर भी प्रश्न होते हैं कि वे अनन्त प्रागभाव स्वतन्त्र हैं या पदार्थ के आश्रित ? यदि पदार्थों के आश्रित हैं तो भी उत्पन्न हो चुके घट पट आदिकों के आश्रित हैं या उत्पन्न होने वाले पदार्थों के ? इत्यादि दूषण आते हो जाते हैं। यदि नैयायिक कहें कि प्रागभाव विशेषण के भेद से ही भिन्न-भिन्न हैं तब तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और इतरेतराभावरूप से ४ अभाव भी मत मानों एक अभाव ही इन विशेषण के भेदों से ही भेदरूप बनता रहेगा। अतः सत्ता को भी आप नैयायिक एक न मानकर पदार्थों के विशेषण भेद से एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अनन्त भेदरूप मानिये और यदि सत्ता को एक, निरंश, सर्वव्यापी अखण्ड मानते हैं तो अभाव भी एक मानिये । और तो क्या आप अंधपरम्परा से भले ही अभाव मानें किन्तु आपका एक भी अभाव सिद्ध नहीं होता है। 1 'कार्योत्पत्तेरेव' इति प्रागुक्त एवकारोत्रैव ज्ञेयः। 2 उपादानस्वभावप्रागभावक्षय एव कार्योत्पत्तिरित्यग्रे वक्ष्यते यतः । आचार्यः । (दि० प्र०) 3 (सकलादेशः प्रमाणाधीन इत्युक्तत्वात्प्रमाणं हि पर्यायं द्रव्यं चापेक्षते। उभय(पर्यायद्रव्य) मुख्यविवक्षयेत्यर्थः)। 4 चतुर्थविकल्पोयम् । 5 पर्यायसन्तत्यपेक्षया । 6 प्रागभावस्यानादित्वेऽनन्तत्वं स्यादाकाशवत् । ततश्च कार्यानुत्पत्तिरेवेति दूषणे उक्ते सत्याह जैनः। 7 आह परः हे स्याद्वादिन् ! प्रागभावस्यानादेरन्तो नास्ति सर्वथा । स्या० एवं न घटते-कस्यचिदन्तः कस्यचिदनन्त इति दर्शनत्वात् । (दि० प्र०) 8 पर्यायापेक्षयाप्यनादित्त्वनिरूपणादित्यनेन पर्यायरूपतया सादित्त्वे प्रागभावात्पूर्वमप्युत्पत्तिः । पश्चादिव कथं विनिवार्येत । इति चार्वाकेण पर्यायपक्षे प्रागुक्तं दूषणं परिहृत्य द्रव्यपक्षे प्रथममुक्तं दूषणं परिहरन्नाह न चानादेरिति । (दि० प्र०) 9 प्रतिवादिनो जैनस्यापेक्षया । (दि० प्र०) 10 सान्तत्त्वाभावे कस्यचिदात्मनः मुक्तिनं स्यात् । (दि० प्र०) 11 स्या० यत एवं तत: घटस्य सर्वदा कार्यानुत्पत्तिदुन्निवारा न सर्वदोत्पत्तिर्वा दुनिवारा न किन्तु ते स्वकालयोग्यतोवशात् घटेते । (दि० प्र०) 12 परिहर्तुमशक्य । (ब्या० प्र०) 13 बसः । (ब्या० प्र०) 14 स च स्याद्वाद्यभ्युपगतः प्रागभावोऽनेकस्वभावोऽस्ति । यथा यौगाद्यभ्युपगतोऽभावस्वभावोऽनेकस्वभाव इति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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