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________________ अष्टसहस्र [ कारिका १० सिद्धेर्घटोत्पत्तिप्रसङ्गासंभवात् ' । व्यवहारनयार्पणात्तु मृदादिद्रव्यं घटादेः प्रागभाव इति 'वचनेपि प्रागभावाभावस्वभावता घटस्य न दुर्घटा यतो द्रव्यस्याभावासंभवान्न जातुचिदुत्पत्तिर्घटस्य स्यात्, 'कार्यरहितस्य पूर्वकालविशिष्टस्य मृदादिद्रव्यस्य घटादिप्रागभावरूपतोपगमात् तस्य च कार्योत्पत्तौ विनाशसिद्धेः, कार्यरहितताविनाशमन्तरेण कार्यसहिततयो - १२४ ] भावार्थ - प्रागभाव को सादि एवं अनादि मानने पर जो दोष प्रगट किये गये हैं वे दोष जैनियों की मान्यता में अवकाश ही प्राप्त नहीं कर सकते हैं क्योंकि पदार्थ अनादि होने पर सादि होता है और सादि होने पर भी अनादि होता है । अतः घट की न तो पूर्व में भी उत्पत्ति हो सकती है और न सर्वदा अनुत्पत्ति ही । इसीलिये प्रागभाव भावस्वरूप ही है, तुच्छाभावरूप नहीं ऐसा समझना चाहिये । वह प्रागभाव भाव के समान एक, अनेक स्वभाव वाला भी है, क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा से एकस्वभाववाला है एवं शक्ति की अपेक्षा से अनेकस्वभाववाला भी है । अतः एकत्वरूप एकांतपक्ष में दिये गये दोष अथवा अनेकत्वरूप एकांतपक्ष में दिये गये दोषों का हमारे यहाँ अवकाश ही नहीं है । नैयायिक - प्रागभाव को भाव स्वभाव स्वीकार करने पर "प्राग्नासीत् कार्यं" पहले कार्य नहीं था इस प्रकार का नास्तित्व प्रत्यय कैसे हो सकेगा । जैन - हो सकता है इसमें कोई भी विरोध नहीं है क्योंकि हमारे यहाँ कार्य का अभाव भावांतर - रूप से स्वीकार किया गया है और उस भावांतररूप - प्रागनन्तर पर्याय में नास्तित्व-असत्प्रत्यय के होने में कोई विरोध नहीं है जैसे कि घटरहित भूतल में घट के नास्तित्व का ज्ञान देखा जाता है । इस प्रकार नय, प्रमाण से अर्पित प्रसिद्धि को प्राप्त जो प्रागभाव है उसका अपलाप करना निन्हव कहलाता है । विशेषार्थ - चार्वाक ने नैयायिक से ४ प्रश्न किये हैं कि यह प्रागभाव सादि सांत है, सादि अनन्त है, अनादि अनन्त है अथवा अनादि सांत है ? प्रागभाव को सादिसांत कहने पर तो प्रागभाव के पूर्व मृत्पिण्ड में प्रागभाव नहीं है क्योंकि वह सादि होने से अन्तिम क्षण में समाप्त हो गया है तो पुनः जहाँ प्रागभाव नहीं है वहाँ घट बन जावेगा, कारण घट की उत्पत्ति का विरोधी तो प्रागभाव ही है अतः अनादिकाल से मिट्टी में प्रागभाव के न होने से हमेशा घट बनता रहने से घट की परम्परा अनादि हो जावेगी । यदि प्रागभाव को सादि अनन्त कहो तो प्रागभाव का कभी नाश न होने से मिट्टी ही धरी रहेगी बिचारा घट कभी भी नहीं 1 सर्व घटप्रागभावानामभावाऽघटनात् घटोत्पत्तिप्रसंगो न संभवति यतः । ( दि० प्र०) 2 व्यवहारो, द्रव्यार्थिकनयः । 3 प्रागुक्त द्वितीय विकल्पे । 4 ( किंतु सुघटैव)। 5 ( मृदादिद्रव्यशब्देन ) । 6 (घटमपेक्ष्य ) । 7 ( कार्यरहितस्य पूर्वकालविशिष्टस्य मृदादिद्रव्यस्य ) । 8 कार्यरहितस्येति विशेषणं समर्थयति । ननु कार्यं सहित पूर्वकालविशिष्टस्य मृदादिद्रव्यस्येत्यादि वक्तव्यं किमर्थं कार्यरहितस्येत्युच्यते । मृत्पिण्डस्यैव घटरूपेणाविर्भावात् तत एव सत् । (ब्या० प्र० ) 9 हेत्वन्तरम् । ता । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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