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________________ प्रागभावसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १२१ दिति चेन्न, स्याद्वादिभिरभीष्टे प्रागभावे यथोक्तदूषणानवकाशात्, नैयायिकादिभिरभिमतस्य' तु तस्य तैरपि 'निराकरणात् । ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि 'प्रागभावस्तावत्कार्यस्योपादानपरिणाम' एव पूर्वोनन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यसद्भावप्रसङ्गः, "प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात्, कार्योत्पादः क्षयो हेतोरिति 12वक्ष्यमाणत्वात् । प्रागभावतत्प्रागभावादेस्तु पूर्वपूर्वपरिणामस्य सन्तत्यानादेविवक्षित कार्यरूपत्वाभावात् । न प्रागभाव और उसके पहले भी प्रागभाव आदि जो कि पूर्व-पूर्व पर्यायरूप हैं तथा सन्तति के अपेक्षा से जो अनादि हैं उनमें विवक्षित कार्यरूपता का अभाव है। इसलिये पहले जो आपने अनादि परिणाम सन्ततियों में विवक्षितकार्य के इतरेतराभाव को कल्पित करके दोष दिया था वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागभाव और उसके पहले के भी प्रागभावादि में हमने इतरेतराभाव माना ही नहीं है जिससे कि आपके द्वारा इतरेतराभाव के पक्ष में दिये गये दूषण आ सकें । अर्थात् इन दूषणों को श हमारे यहाँ नहीं है और इस प्रकार से प्रागनन्तर परिणाम-अव्यवहित-पर्याय को प्रागभाव स्वीकार करने पर उस प्रागभाव के अनादिपने का भी विरोध नहीं है क्योंकि प्रागभाव और उनके पूर्व-पर्व प्रागभावादिक जो कि प्रागभाव की सन्तान माला_परम्परारूप से हैं उनकी अपेक्षा से प्रागभाव के अनादिपना भी सिद्ध ही है। इस प्रकार से सन्तान से सन्तानी सर्वथा भिन्न है अथवा सर्वथा अभिन्न है ? इत्यादि दोषों से सन्तान में दूषण देना योग्य नहीं है। अर्थात् हमने सन्तान से सन्तानी को--द्रव्य से पर्यायों को कथञ्चित् भिन्न एवं कथञ्चित् अभिन्नरूप से ही स्वीकार किया है क्योंकि पूर्व-पूर्व के प्रागभावस्वरूप जो भावक्षण हैं जो कि अपरामृष्टभेदरूप हैं उन्हें ही सन्तानरूप से माना है, परन्तु सन्तानी क्षण की अपेक्षा से तो (पर्यायों की अपेक्षा से तो) प्रागभाव के अनादिपना न होने पर भी कोई दोष नहीं र्थात् पर्याय की अपेक्षा से तो प्रागभाव सादि ही है। द्रव्यदृष्टि से ही अनादि है, क्योंकि ऋजसूत्रनय की अपेक्षा से तो उस प्रकार से वह प्रागभाव सादि ही इष्ट है अर्थात् यह नय तो क्षणध्वंसि -एक समयवर्ती पर्याय को ही विषय करता है। अतः ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से सादि मानने में कोई दोष नहीं है। 1 प्रत्यक्षतो न प्रतिभासते इत्येवम् । 2 अभावो न भावरूपस्तस्य भावविशेषणत्वादिति भावविशेषणरूपस्य । 3 स्याद्वादिभिः । 4 वस्तुसामान्यशक्त्यापेक्षो वर्तमानपर्यायमृजु प्रगुणं सूत्रयति गमयतीत्ययमृजुसूत्रनयोऽतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्त्वे न व्यवहाराभावात् । (ब्या० प्र०) 5 प्रागनन्तरपरिणामादिरूपेण चतुर्धा विकल्पे यदुक्तं दूषणं चार्वाकेण तत्सर्वं तद्विकल्पाभ्युपगमपुरस्सरं परिहरन्नाह जैनः। 6 अर्पणा विवक्षा। 7 घटस्य । 8 तद्रूप । (ब्या० प्र०) 9 मृत्पिण्डरूपः। 10 तथा सतीत्यर्थः। 11 मत्पिण्डप्रध्वंसस्य। 12 द्वितीयपरिच्छेदे। 13 अथ पूर्वानादिपरिणामस्य स्वस्वपूर्वस्वरूपप्रागभावाभावरूपत्वात् कार्यरूपत्वमस्त्येव ततः कथं न तत्र कार्यसद्भाव इति चेदाह जैनः । 14 घटस्य प्रागभावो मत्पिण्डः । मत्पिण्डलक्षणप्रागभावस्य मृच्छकलम् । तस्यान्यदित्येवम्। 15 विवक्षितकार्य प्रागनन्तरपरिणामनाशस्वरूपघटलक्षणम् । 16 पूर्वानादिपरिणामसंतती । पूर्वपूर्वपरिणामसंतती। अस्य प्रागभावस्य संततिषु कार्यस्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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