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________________ १२० ] [ कारिका १० मोपगमेपि भावस्वभावप्रागभावाद्यभ्युपगमस्यापि सद्भावात् । तत्र प्रागभावस्य प्रसिद्धस्याप्यपलपनं निह्नवः । तस्मिन्क्रियमाणे कार्यद्रव्यं पृथिव्यादिकमनादि स्यात् । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य स्वभावस्य प्रच्यवोऽपलापः । तस्मिन्विधीयमाने तदनन्ततां व्रजेत् । न चानाद्यनन्तं पृथिव्यादिकं प्रागभावाद्यपह्नववादिनाभ्युपगन्तुं शक्यते, स्वमतविरोधाल्लौकायतिकत्वहानिप्रसङ्गात् । कथं पुन: " प्रागभावः प्रसिद्धः, तस्योक्तदूषणविषयतया व्यवस्थित्यभावा अष्टसहस्री भावस्वभाव मान लीजिये । इस प्रकार से आप चार्वाक को उलाहना देने के अनन्तर उस प्रसिद्ध प्रागभाव का अपलाप करना निन्हव है और उस प्रागभाव का निन्हव - लोप करने पर पृथ्वी आदि कार्यद्रव्य अनादि हो जायेंगे । प्रध्वंसरूप स्वभाव का प्रच्यव -अपलाप करने पर वे कार्यद्रव्य अनन्तपने को प्राप्त हो जायेंगे, परन्तु प्रागभावादि का अपन्हव करने वाले वादियों के द्वारा भी पृथ्वी आदि कार्यद्रव्य को अनादि अनन्तरूप स्वीकार करना शक्य नहीं है क्योंकि उनके यहाँ स्वमत विरोध आ जायेगा और पुनः "लोकायतिकपने" की भी हानि हो जावेगी । अर्थात् चार्वाक का दूसरा नाम लोकायतिक भी है । जो लोकव्यवहार को प्राप्त करे वह लोकायतिक है इस व्युत्पत्तिजन्य अर्थ की भी हानि का प्रसङ्ग हो जावेगा । चार्वाक - आपका प्रागभाव प्रसिद्ध कैसे है ? क्योंकि ऊपर कहे गये दोषों से दूषित होने से उसकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती है । जैन - आप ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि हम स्याद्वादियों के द्वारा स्वीकृत प्रागभाव में - उपर्युक्त दोषों को अवकाश ही नहीं है । नैयायिकादिकों के द्वारा अभिमत भावविशेषणरूप अभाव का तो हम जैनियों ने भी निराकरण कर दिया है । अर्थात् नैयायिकों का कहना है कि अभाव भावरूप नहीं है वह तो भाव का विशेषण है परन्तु ऐसा तो हम भी नहीं मानते हैं क्योंकि ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से ही पूर्व का अनन्तरस्वरूप - अव्यवहितरूप कार्य का उपादानपरिणाम ही प्रागभाव है । अर्थात् घट का प्रागभाव अनन्तर- अन्तिमक्षणवर्ती मृत्पिण्ड ही है । पुनः जो आपने दूषण दिया था कि पूर्व पूर्व की अनादि परिणाम सन्तति ( स्थास, कोश, कुशूल आदि) में कार्य (घट) के सद्भाव का प्रसङ्ग आ जावेगा सो भी कथन ठीक नहीं है, क्योंकि हमने मृत्पिण्ड के प्रध्वंसरूप प्रागभाव के विनाश को ही कार्यरूप से स्वीकार किया । उसका विशेष वर्णन द्वितीय परिच्छेद में "कार्योत्पादः क्षयो हेतोः " इस ५८वीं कारिका के द्वारा करेंगे । 1 सांख्यस्य । ( दि० प्र०) 2 चार्वाकस्यैवोपालभ्यत्वे सति । 3 अनेन श्लोकेन चार्वाक उपालभ्यत इति प्रतिपाद्येदानीं श्लोकार्थं कथयन्ति तत्र प्रागभावस्येति । (दि० प्र०) 4 घटादि । ( दि० प्र० ) 5 कार्यद्रव्यम् । ( दि० प्र० ) 6 भवतु को दोष: । ( दि० प्र०) 7 चार्वाकाणाम् । (दि० प्र०) 8 लोकव्यवहारमयतेऽभ्युपगच्छतीति लोकायतिकः । 9 शङ्कते चार्वाक : ( लोकायतिकः ) । 10 आक्षेपे । (ब्या० प्र० ) 11 नापि । (ब्या० प्र०) 12 प्रागभावस्य । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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