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________________ एकांत शासन में दूषण का सारांश * हे भगवन् ! आपके शासन रूपी अमृत से बहिर्भूत 'मैं आप्त हूँ' इस प्रकार के अभिमान से जो दग्ध हैं उन एकांतवादियों का शासन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित ही है । १. ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध - सुखादि चैतन्य ज्ञान एक निरंश रूप ही है भिन्न-भिन्न रूप नहीं I २. चित्राद्वैतवादी - एक चित्रज्ञान में पीतादि आकारों का विवेचन करना अशक्य होने से पीतादि आकार ज्ञान को हम एक ही मानते हैं एवं जो यह नील पीतादि भिन्न-भिन्न प्रतिभास हैं वह संवृति (अविद्या) से उपकल्पित है / अवास्तविक ही है । ३. सांख्य-सुखादि अचेतन हैं क्योंकि उत्पत्तिमान हैं घट के समान । एवं सुखादिकों में पुरुष के संसर्ग से स्वसंवेद्यपना होता है । ४. योग - आत्मा को चेतनत्व असिद्ध है । प्रमिति स्वभाव चेतना के समवाय से ही हमने आत्मा को चेतन माना है । ५. बौद्ध - वर्णादि रूप परमाणु ही निर्विकल्प ज्ञान में झलकते हैं किन्तु स्कन्ध नहीं झलकता है । ६. सांख्य - स्कन्ध ही ज्ञान गोचर हैं क्योंकि अणु आदि कोई चीज ही नहीं है । चक्षु आदि इंद्रियों के भेद से स्कन्ध के अणु आदि भेद प्रतिभासित होते हैं । जैसे किंचित् अंगुलियों से ढके हुये नेत्र से दीपकलिका में भेद दिखाई देता है । इत्यादि रूप से जो एकांतवादियों का पूर्वपक्ष है उसका जैनाचार्य खण्डन करते हैं । प्रथम पक्ष का खण्डन करते हुये कहते हैं कि ज्ञान को निरंश मानना सर्वथा गलत है उसमें वेद्य-वेदकाकार एवं संविदाकार तो हैं ही अतः तीन अंश तो सहज ही हो जाते हैं । एवं दूसरे पक्ष का खण्डन करते हुये कहते हैं कि आप चित्रज्ञान को एक रूप कहते हैं, उसमें नील पीत आदि अनेक आकार भी कहते हैं किन्तु स्याद्वाद के बिना यह बात सिद्ध नहीं है तथा अद्वैत भी सिद्ध नहीं होता है । तृतीय पक्ष में भी बाधा है क्योंकि चैतन्य से प्रतिभासित होते हैं । पुरुष के संसर्ग से सुखादि में नहीं हो सकेगा उसे भी संसर्ग से मानना आपको यह इष्ट नहीं है । समन्वित ही सुखादि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में सर्वदा चेतनता मानने से तो पुरुष में चैतन्य गुण स्वतः हमारे यहाँ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से चैतन्य जीव द्रव्य में चेतनत्व प्रसिद्ध ही है । सुख, ज्ञान आदि प्रतिनियत पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से सकल औपशमिक आदि भाव एवं सुखादि, ज्ञानदर्शन रूप उपयोग स्वभाव से भिन्नपना भी माना गया है अतएव आत्मा के सुखादि ज्ञानात्मक ही हैं । * यह सारांश पृष्ठ २६ पर पढ़ना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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