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[ कारिका
१०० ]
अष्टसहस्री तादिसिद्धिप्रसङ्गात् । स्वरूपस्य स्वतो गतिरिति तु संविदद्वैतवादिनोपि' 'समानम् । किं बहुना, सर्वस्य स्वेष्टतत्त्वं प्रत्यक्षादिप्रमाणाभावेपि व्यवतिष्ठेत, स्वरूपस्य स्वतो गतेः । इत्यतिप्रसङ्ग एव, पुरुषाद्वैतवदनेकान्तवादस्यापि सिद्धेः, संविदद्वैतवदनेकसंवेदनस्यापि सिद्धेः । 'इति न सत्ताद्वैतं निष्पर्यायं शक्यमभ्युपगन्तुम् । विचारयिष्यते चैतत् प्रपञ्चतोग्रे । तदलमतिप्रसङ्गेन । 'ततो भावा एव नानात्मादय' इति भावकान्तोऽभ्युपगम्यताम् । तत्र च सर्वात्मकत्वादिदोषानुषङ्गः परिहर्तुमशक्यः ।
जैन-यह उत्तर तो संवेदनाद्वैतवादी के लिए भी समान ही है अर्थात् वे भी कहते हैं कि ज्ञान स्वयं प्रकाशित होता है। अधिक कहने से क्या ? सर्व मतावलंबियों के यहाँ "स्वरूपस्य स्वतो गतिः" स्व-स्व अभिमत तत्त्वों की प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के अभाव में भी व्यवस्था बन जायेगी। क्योंकि स्वरूप का स्वयमेव बोध होता है। अत: इस कथन से तो अतिप्रसंग दोष ही उपस्थित होता है। पुन: आपके पुरुषाद्वैत के समान हम जैनियों का अनेकांतवाद भी सिद्ध ही हो जायेगा। क्योंकि संवेदनाद्वैत के समान अनेक संवेदन की भी सिद्धि पाई जाती है अर्थात् प्रमाण का अभाव तो दोनों जगह समान ही है दोनों की मान्यता भी स्वयं ही सिद्ध क्यों न हो जावे ? इसलिये यहाँ अतिप्रसंग से बस होवे । इस प्रकार से भाव-पदार्थ ही नानात्मक है अतः भावकांत को ही स्वीकार करना चाहिये ऐसा जो सांख्यों का कहना है उसमें भी सर्वात्मकत्वादि दोषों का परिहार करना अशक्य ही है।
भावार्थ-सत्ताद्वैतवादी का कहना था कि प्रत्यक्ष अनुमान या आगम प्रमाण से अभाव का ज्ञान नहीं होता है अतः सारा जगत् एक सत्-ब्रह्मस्वरूप ही है । किन्तु जैनाचार्य जगत् को नानारूप सिद्ध कर रहें हैं । सत्ताद्वैतवादी ने सारे भेदों को केवल अविद्या से सिद्ध करना चाहा था किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि तुम्हारा सन्मात्रशरीरधारी परमब्रह्म न प्रत्यक्ष से सिद्ध होता है न अनुमान से और न आगम से। क्योंकि तुम जिससे एक अद्वैतब्रह्म को सिद्ध करना चाहते हो उसी से द्वैत हो जाता है। यदि कहो कि ब्रह्मस्वरूप की स्वयं सिद्धि है तब तो विज्ञानाद्वैत की भी स्वयं सिद्धि है ऐसा योगाचार बौद्ध कहते हैं एवं हम जैन लोग भी अनेकांततत्त्व की स्वयं सिद्धि मान रहे हैं क्या बाधा है ? अतः सत्ताद्वैतवादी भी अभाव का लोप करके मात्र सत्ताद्वैत की स्थापना नहीं कर सकता है।
1 न केवलमद्वैतवादिनः माध्यमिकस्यापि । (ब्या० प्र०) 2 संवित्स्वयमेव प्रकाशते इति मतम् । 3 तत्रत्तत्त्व । (ब्या० प्र०) 4 (व्यवतिष्ठतेत्यादिः पूर्वोक्त एवातिप्रसङ्गः)। 5 पुरुषः । (ब्या० प्र०) 6 (प्रमाणाभावस्योभयत्र समानत्वात्)। 7 हेतोः। (ब्या०प्र०) 8 पर्यायो, भेदः। 9 स्वमतोक्तदोषपरिजिहीर्षया सांख्यः सत्ताद्वैतेङ्गीकृते तस्याप्यशक्यव्यवस्थत्वमापादितं यतः। 10 प्रधानादि । (ब्या० प्र०) 11 सांख्यपरिकल्पितः। (ब्या०प्र०) 12 (सांख्यः । न सत्ताद्वैतम्)। 13 भावैकान्ते ।
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