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________________ भाव एकान्त का निरास ] प्रथम परिच्छेद [ ८७ 'प्रत्ययाद्भावस्वभावभेदं साधयेत्तस्य इतरेतराभावविकल्पोपि' कथमयथार्थो न स्याद्वर्णादिविकल्पवत् । वर्णादिप्रत्ययो' भावस्वभावभेदं स्वसाध्यमर्थमन्तरेणैव भावाव्यभिचारित्वादयथार्थो', न पुनरितरेतराभावप्रत्यय12 13इत्यशक्यव्यवस्थं, तस्य14 15भावाभावयोरभेदेपीतरेतरा भावप्रत्ययेन व्यभिचारात् । न हि वस्तुव्यतिरिक्तमसन्नाम, 'प्रमाणस्यार्थविषयत्वात् * । 22प्रत्यक्षमभावविषयं भवत्येव, 24तस्येन्द्रियैः 2"संयुक्तविशेषण बौद्ध-हमारे यहाँ तो संवृति-कल्पज्ञान से भेद सिद्ध है। ब्रह्माद्वैत-तब तो समान ही समाधान है हम भी अविद्या-कल्पना से ही प्रतिभास भेद मानते हैं और आप भी संवृति-कल्पना से मानते हैं । तथा च जो यौगमतावलम्बी इतरेतराभाव के ज्ञान से भाव स्वभाव-पदार्थों में स्वभावभेद को सिद्ध करता है उसके यहाँ भी इतरेतराभाव रूप विकल्पज्ञान भी अयथार्थ-असिद्ध क्यों नहीं होगा वर्णादि के विकल्पज्ञान के समान ? अर्थात् योग वर्णादि भेद के ज्ञान को व्यभिचारी स्वीकार करके भी कहता है कि चित्रज्ञान में वर्गों का ज्ञान भेद को व्यवस्थापित नहीं करता है।। योग-वर्णादि ज्ञान "भावस्वभाव भेद रूप" अपने साध्य पदार्थ के बिना ही होता है अतएव वह व्यभिचारी होने से अयथार्थ है, किन्तु इतरेतराभावरूप ज्ञान वैसा नहीं है अर्थात् वस्तु में स्वभाव भेद नहीं है फिर भी वर्णादि का ज्ञान भेदरूप उत्पन्न होता है अतः पदार्थ में भेद हुये बिना भी ज्ञान में भेद होने से वह वर्णादि ज्ञान व्यभिचारी होने से असत्य है, किन्तु इतरेतराभावरूप ज्ञान असत्य नहीं है। ब्रह्मवादी-यह व्यवस्था करना अशक्य ही है वह इतरेतराभाव भावाभाव के अभेद में भी उत्पन्न होता है इसलिये इतरेतराभाव के ज्ञान के साथ वह इतरेतराभाव ही व्यभिचरित होता है। अर्थात् शुद्ध भूतल भावरूप है एवं घट का नास्तित्व अभावरूप है इन भाव और अभाव के अभेद में भी इतरेतराभाव ज्ञान उत्पन्न होता है उससे व्यभिचार आता है। . वस्तु को छोड़कर असत् नाम की कोई वस्तु नहीं है क्योंकि प्रमाण (ज्ञान) पदार्थ को ही विषय करता है । अर्थात् ब्रह्माद्वैतवादी भाव और अभाव में अभेद को सिद्ध करता है। 1 ज्ञानात् । (दि० प्र०) 2 ता बहुः । (ब्या० प्र०) 3 विकल्पो ज्ञानम् । 4 असिद्धः । 5 यथा वर्णादिज्ञानम् । 6 यौग: प्राह । 7 रूपरसादि। (दि० प्र०) 8 स्वसाध्यमन्तरेणैव इति पा० । (दि० प्र०) 9 भवति । (दि० प्र०) 10 असत्यः । (दि० प्र०) 11 चेति अधिकः पाठः। (दि० प्र०) 12 संवेदनाद्वैतवाद्याह । एकमेव ब्रह्माभ्यपगच्छतः। अद्वैतवादिनः यथा वर्णादिविकल्पोऽसत्यः तथा इतरेतराभावप्रत्ययोपि । (दि० प्र०) 13 ब्रह्मवादी प्राह, इति योगस्य कथनमशक्यव्यवस्थमिति। 14 इतरेतराभावस्य। 15 शुद्धभूतलत्वं भावो, घटनास्तित्वमभावः, तयोः। 16 भावाभावयोरभेदेपीतरेतराभावप्रत्यय उत्पद्यते । तेन व्यभिचारः। 17 अस्मिन् भूतले घटो नास्तीति प्रत्ययेन। (दि० प्र०) 18 भावाभावयोरभेदं साधयति ब्रह्मवादी। 19 भाववाद्याह। वस्तुरहितमन्यत् असन्नास्ति । कुतः प्रमाणमर्थमेव गृह्णाति नत्वभावं यतः । (दि० प्र०) 20 भिन्नं भावः । (दि० प्र०) 21 भाव । (ब्या० प्र०) 22 आह योगः। 23 सन्मात्रविषयत्वात्प्रत्यक्षस्येति हेत्वन्तरम् । 24 अभावस्य । 25 इन्द्रियैः संयुक्ते भूतले, भूतले घटाभावोस्तीति विशेषणसंबन्धसद्भावात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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