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________________ ८६ ] अष्टसहस्री । कारिका "यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो नरः । सङ्कीर्णमिब 1मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥१॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं० प्रपश्यति ॥२॥" इति वचनात् । तथा चासिद्धं 'विशेषसाधनं न' साध्यसाधनायालम् । 10तदेकं चक्षुरादिज्ञानप्रतिभासभेदवशाद्रूपादिव्यपदेशभाग ग्राह्यग्राहकसंवित्तिवत्1 * । चक्षुरादिज्ञानप्रतिभासभेदोप्यसिद्ध 14एवाभेदवादिन इति चेद्ग्राह्यग्राहकसंवित्तिप्रतिभासभेदोपि 16भेदवादिनः किमेकत्र7 ज्ञानात्मनि सिद्ध:18 ? संवृत्त्या सिद्ध इति चेत्समः 19समाधिः । 20योपीतरेतरा भाव श्लोकार्थ-आकाश विशुद्ध-निर्मल है फिर भी तिमिर-रोग से युक्त मनुष्य भिन्न-भिन्न अनेक रेखाओं से युक्त के समान ही उसे देखता है ॥१॥ उसी प्रकार से हमारे यहाँ भी यह उत्पादादि रहित निर्मल एवं निर्विकल्प परमब्रह्म का स्वरूप है परन्तु अविद्या से ही कलुषता को प्राप्त होकर भेदरूप के समान ही मनुष्य उसे देखते हैं ।।२।। इसलिये संविन्निर्भास-ज्ञान प्रतिभास के भेद से भेद को सिद्ध करना यह हेतु भी विशेषरूप साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है इसलिये असिद्ध है । वह एक ही ब्रह्म चक्षु आदि ज्ञानप्रतिभास के भेद के निमित्त से रूपादि व्यपदेश को प्राप्त करने वाला है ग्राह्य-ग्राहक संवित्ति के समान । __ अर्थात् जैसे प्रतिभास भेद के निमित्त से एक ही चित्रज्ञान ग्राह्य-ग्राहक व्यपदेश (नाम) को प्राप्त होता है । उसी प्रकार ब्रह्म भी प्रतिभास भेद के निमित्त से ही नाना व्यपदेश-नाम को प्राप्त होता हुआ देखा जाता है, वास्तव में एक ही है । बौद्ध-चक्षु आदि ज्ञान के प्रतिभास का भेद भी अभेदवादियों के लिये असिद्ध ही है। ब्रह्माद्वैती-तब तो ग्राह्य-ग्राहक संवित्ति के प्रतिभास का भेद भी आप भेदवादी-चित्राद्वैतवादी बौद्धों के यहाँ एक ज्ञानात्मा में सिद्ध है क्या? अर्थात् फिर तो आपके यहाँ भी प्रतिभास भेद असिद्ध 1 रेखाभिः । 2 कृष्णनीलाभिः । (दि० प्र०) 3 उत्पादादिरहितम् । 4 घटपटादिभेदस्वरूपरहितम् । 5 उत्पादादिमत्त्वम् । (व्या० प्र०) 6 घटादि । (ब्या० प्र०) 7 संविन्निर्भासभेदादिति । 8 ता । (ब्या० प्र०) 9 सत्ताद्वैतवाद्याह । हे भेदवादिन् ! संविन्निर्भासभेद इति विशेषसाधनं स्वयमसिद्धं सत स्वसाध्यस्य भेदाख्यस्य साधनाय समर्थ न भवति =आह संवेदनाद्वैतवादी, हे अद्वैतवादिन् ! तव कथमित्युक्ते स आह । तद् ब्रह्मस्वरूपमेकमेव चक्षुरादिज्ञानप्रतिभासभेदायूंपादिसंज्ञाभाग्भवति । यथा तव एकमेव ज्ञानं संविन्निर्भासभेदात् ग्राह्यग्राहकसंवित्तिसंज्ञाभाग्भवति । (दि० प्र०) 10 ब्रह्म। 11 विशेषसाधनं न भेदसाधनं साध्यसाधनायालं न भवेद्यतः । (दि० प्र०) 12 प्रतिभासभेदवशादेकं चित्रज्ञानं ग्राह्यादिव्यपदेशभाग यथा तथा ब्रह्म नानाव्यपदेशभाक् । 13 आह सौगतः । 14 ब्रह्मवादिनः। 15 अद्वैतवादिनः । (दि० प्र०) 16 सौगतस्य। 17 प्रश्ने । (दि० प्र०) 18 अपि तु नव सिद्धः। 19 सौगतब्रह्मवादिनोरुभयोरेव संवृत्त्या भेदस्याङ्गीकाराविशेषात् । 20 ब्रह्मवादी यौगाशङ्कां निराकुर्वन्नाह योपीति (योगः)। 21 प्रत्ययः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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