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________________ ८२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६ च 'स्वान्तर्भावाश्रयस्वरूपस्य सांख्यैरभ्युपगमादभावापह्नवासिद्धेः कथं सर्वात्मकत्वादिर्दोष इति चेन्न, तथा भावैकान्तविरोधात् सर्वस्य' भावाभावात्मकत्वप्रसक्तेः । न हि 'वयमपि 'भावादर्थान्तरमेवाभावं संगिरामहे, तस्य नीरूपत्वप्रसङ्गात्, नास्तीतिप्रत्ययजनकत्वरूपसद्धावादभावस्य' 10नीरूपत्वाभावोपगमे तस्य1 12भावस्वभावत्वसिद्धेः 1 प्रत्ययाभिधान 4विषयस्यार्थ क्रियाकारिण:16 17पदार्थस्य भावस्वभावत्वप्रतिज्ञानात्18, नास्तित्वस्य वस्तुधर्मत्वादस्तित्ववत् । वस्तुनोस्तीतिप्रत्ययविषयो हि 2पर्यायोस्तित्वं, नास्तीतिप्रत्ययविषयस्तु है एवं महाभूतादि में प्रध्वंसाभाव स्वान्तर्भावाश्रयरूप है अर्थात् स्व-महाभूत उसमें अन्तर्भाव और उस अन्तर्भाव का आश्रयरूप है। जहाँ-जहाँ महाभूत लीन होते हैं वह महाभूत कारण द्रव्य है और इसीलिये हमारे यहाँ यह अभाव स्वभावरूप होने से अभाव का लोप असिद्ध है। पुनः सर्वात्मकत्व आदि दोष भी कैसे आ सकेंगे? जैन-नहीं, ऐसा मानने पर आपके भावैकांत में विरोध आवेगा । अर्थात् जब हमारे यहाँ अभाव स्वभावरूप ही है तो अभाव के लोप का प्रसंग कैसे आवेगा? पुनः सभी पदार्थ भावाभावात्मकरूप हो जावेंगे क्योंकि हम जैन भी भाव से भिन्न ही अभाव को नहीं मानते हैं अन्यथा वह अभाव निःस्वरूप हो जावेगा, किन्तु वह अभाव "नास्ति' इस प्रकार के ज्ञान को उत्पन्न करनेरूप सद्भाव स्वभाव वाला है । अभाव में नीरूपत्व-तुच्छाभाव का अभाव स्वीकार करने पर उस अभाव में भाव स्वभावत्व सिद्ध ही है क्योंकि "नास्ति' इस प्रकार के ज्ञान और शब्द के विषयभूत सभी अभाव अर्थक्रियाकारी हैं। अतः वे अभाव पदार्थरूप होने से भावस्वभाव ही हैं ऐसा हमारे यहाँ स्वीकार किया है। __ 'नास्तित्व' भी वस्तु का धर्म है अस्तित्व के समान । अर्थात् वस्तु में 'अस्ति" इस ज्ञान के विषयरूप पर्याय को अस्तित्व कहते हैं एवं "नास्ति' इस ज्ञान की विषयभूत पर्याय को नास्तित्व कहते हैं। 1 (स्वस्य महाभूतस्यान्तर्भावः स्वान्तर्भावः । तस्याश्रयः) यत्र महाभूतानि लीयन्ते स महाभूतकारणद्रव्यमित्यर्थः । (स स्वरूपं यस्य स, तस्य प्रध्वंसाभावस्य)। 2 अस्माकं सांख्यानामभावानङ्गीकारो न सिद्धयति यतः । (दि० प्र०) 3 तथा सति । 4 वस्तुनः । (ब्या० प्र०) 5 आशङ्कय । (ब्या० प्र०) 6 जैनाः। 7 तर्हि स्याद्वादिनामभावः क इत्युक्त आह । वयमपि स्याद्वादिनोपि । अर्थाद्भिन्नमभावं न प्रतिजानीम: कुतस्तस्यार्थाभिन्नस्याभावस्य निःस्वभावत्त्वात् । एवं स्याद्वादिनां नास्तीति ज्ञानोत्पादकत्त्वस्वरूपसद्भावात् । अभावस्य नि:स्वभावत्वाभावाङ्गीकारे सति सोऽभावोऽर्थस्वभाव एवेति सिद्धयति । (दि० प्र०) 8 अन्यथा अभावस्य निस्स्वभावत्वप्रसङ्गात् । १ लक्षणम् । (ब्या० प्र०) 10 ता। (ब्या० प्र०) 11 अभावस्य । (दि० प्र०) 12 ता । (ब्या० प्र०) 13 नास्तीति प्रतीत्यभिधानयोजनकस्येत्यर्थो वा। 14 ज्ञानशब्दयोगे चिरस्य । नास्तित्त्वं । तासः । (दि० प्र०) 15 निर्घट भूतलमितिशब्दविषयस्य । ज्ञानलक्षणम । (दि० प्र०) 16 प्रत्ययाभिधानविषयार्थक्रियाकारिणः । नास्तीतिप्रत्ययभिधानयोजनकस्य। (दि० प्र०) 17 अभावादिपदार्थस्य। 18 जैनः। (दि० प्र०) 19 भावस्वभावत्वं कथमित्युक्ते आह । (दि० प्र०) 20 धर्मः । 21 वस्तुनः पर्याय इति संबन्धः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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