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________________ निमित्त से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का आश्रव होता है। केवली, श्रुत, संघ, धर्म आदि को झूठा दोष लगाने से दर्शन मोहनीय का, एवं कषायों की तीव्रता से चारित्र मोहनीय का आस्रव होकर बंध होता है। इस प्रकार से भाव कर्म के लिये निमित्त कारण द्रव्य कर्म हैं एवं द्रव्य कर्म के लिये निमित्त कारण भावकर्म हैं ऐसा निश्चय हो जाता है । जो लोग ऐसा समझते हैं कि 'मेरी भूल से ही संसार है कर्म का उदय मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता', उन्हें अपनी एकांत मान्यता को हटा देना चाहिए। प्रश्न-जैसे किसी जीव में दोष और आवरण का पूर्णतया नाश हो सकता है ऐसे ही किसी जीव में बुद्धिज्ञान का भी पूर्णतया नाश मान लेना चाहिये ? उत्तर-ठीक है, हम स्याद्वादी हैं। किसी जीव ने पृथ्वीकाय आदि को शरीररूप से ग्रहण करके छोड़ दिया, अतः उन पाषाण, मिट्टी आदि में चैतन्य-ज्ञान का सर्वथा अभाव हो गया। इससे यह समझना चाहिए कि भस्म लोष्ठ आदि पृथ्वीकाय सर्वथा अजीव हैं । पृथ्वीकायिक में ही जीव विद्यमान रहता है। दूसरी बात यह है कि मति, श्रुत आदि रूप क्षयोपशम ज्ञान का अभाव हो जाता है किन्तु पूर्ण-केवलज्ञान का किसी जीव में अभाव होना सम्भव नहीं है क्योंकि ज्ञान यह जीव का स्वाभाविक परिणाम है। आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं- स्वाभाविक और आगंतुक । अनंत ज्ञान आदि गुण स्वाभाविक हैं और अज्ञान आदि मल आगंतुक हैं । भागंतुक मिथ्यात्व, राग-द्वेष अज्ञान आदि दोष के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन आदि गुणों की वृद्धि हो जाने से दोषों का अभाव हो जाता है । मीमांसक-संपूर्ण कर्मों से रहित भी आत्मा, परमाण, धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को कैसे जानेगा? इनका ज्ञान तो वेद वाक्यों से ही होता है अतः विश्व में कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता जैनाचार्य-सूक्ष्म परमाणु आदि और राम-रावण, सुमेरु आदि पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि वे अनुमान ज्ञान के विषय हैं। सर्वज्ञ भगवान् अतींद्रिय ज्ञान से ही सूक्ष्मादि पदार्थों को जानते हैं, इंद्रिय ज्ञान से नहीं। क्योंकि इंद्रियाँ तो वर्तमान और नियत पदार्थ को ही विषय करती हैं भूत, भविष्यत् के अनंत पदार्थों को नहीं । वेद-वाक्यों से सूक्ष्मादि पदार्थों को ज्ञान मानने में तो सबसे पहले वेद को सर्वज्ञ का वाक्य कहना होगा अन्यथा हम आप जैसे अल्पज्ञ का कथन निर्दोष नहीं हो सकेगा। 'वेद का कर्ता कोई नहीं है। इसका खंडन समयानुसार किया जावेगा। अतः कोई न कोई कर्म मल कलंक रहित अकलंक आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है, वही निर्दोष है यह बात सिद्ध हो जाती है । अब वह निर्दोष, सर्वज्ञ आत्मा कौन हो सकता है ? इस बात को सिद्ध कर रहे हैं । वे निर्दोष सर्वज्ञ आप ही हैं चार्वाक-कोई तीर्थंकर प्रमाण नहीं है न कोई आगम है न वेद हैं अथवा न कोई तर्क अनुमान ही है बस एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है । पृथ्वी, जल, भग्नि और वायु इन भूत चतुष्टय से ही चैतन्य की उत्पत्ति होती है। जैनाचार्य-यह बात ठीक नहीं है, देखिये ! यदि आप प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं तब तो कोई भी प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अच्छा ! आप पहले इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सारे विश्व में घूमकर देख लो कि कहीं भी सर्वज्ञ तीर्थंकर नहीं है तभी आपका कहना सत्य होगा और यदि आपने सारे विश्व को देख लिया, जान लिया तब तो आप स्वयं ही सर्वज्ञ बन गये क्योंकि 'सर्वं जानातीति सर्वज्ञः' जो सभी को जानता है वही सर्वज्ञ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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