________________
( १२ )
में भी उन वेद वाक्यों को पृथक-पृथक अर्थ करके कई लोग आपस में विसंवाद करते हैं। भाट्ट, वेद वाक्यों का अर्थ भावना करते हैं। प्रभाकर उन्हीं वाक्यों का अर्थ नियोग करते हैं और वेदान्ती उन्हीं वाक्यों से ब्रह्मवाद को पुष्ट करते हैं।
अतएव श्रीसमंतभद्रस्वामी कहते हैं कि सभी के सम्प्रदायों में परस्पर में विरोध होने से सभी आप्त नहीं हो सकते हैं किन्तु कोई एक ही आप्त-सच्चा देव हो सकता है। पुनः मानों भगवान् यह प्रश्न करते हैं कि सच्चे आप्त में आप क्या गुण चाहते हैं ? तो समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि वह सर्वज्ञ होना चाहिये । सूक्ष्म-परमाणु आदि, अंतरित-रामरावण आदि और दूरवर्ती-हिमवन सुमेरु आदि पदार्थ अनुमान ज्ञान से जाने जाते हैं जैसे कहीं पर धुयें को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है तो वह अग्नि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य है और जिनके ये सूक्ष्मादि पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं वे ही सर्वज्ञ हैं। पुनः प्रश्न होता है कि हम सभी संसारी प्राणी अल्पज्ञ हैं तो सर्वज्ञ कैसे बन सकते हैं ? इस पर आचार्य कहते हैं कि दोष और आवरणों का अभाव किसी न किसी जीव में सम्पूर्ण रूप से हो सकता है क्योंकि हम लोगों में दोष-रागादि भाव और आवरण-कर्मों की तरतमता देखी जाती है किन्हीं में रागादि दोष कम हैं किन्हीं में उससे भी कम हैं। इससे यह अनुमान लगता है कि किसी जीव में ये दोषादि सर्वथा भी नष्ट हो सकते हैं जैसे कि अपने निमित्तों से स्वर्ण पाषाण से किट्ट और कालिमा का सर्वथा अभाव हो जाता है और स्वर्ण शुद्ध हो जाता है।
प्रश्न-दोष और आवरण में क्या अन्तर है ?
उत्तर-कर्म के उदय से होने वाले जीव के राग-द्वेष, अज्ञान आदि परिणाम दोष कहलाते हैं इन्हें भाव कर्म भी कहते हैं । ज्ञानावरण आदि पौदगलिक कर्म आवरण कहलाते हैं इन्हें द्रव्य कर्म कहते हैं। इन दोनों में परस्पर में कार्य कारण भाव निश्चित है जैसे बीज से अंकुर एवं अंकुर से बीज की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है उसी प्रकार से दोष से आवरण और आवरण से दोष होते रहते हैं।
बौद्ध-अज्ञानादि दोष स्वपरिणाम के निमित्त से ही होते हैं । इसमें आवरण (कर्म का उदय) कुछ भी नहीं कर सकता है।
जैनाचार्य-ऐसा नहीं है। यदि दोषों को स्वनिमित्तक ही मानोगे तो इनका कभी अभाब नहीं हो सकेगा पुनः इसके नाश के बिना मोक्ष होना भी असंभव हो जावेगा। जैसे जीव के जीवत्व आदि भाव स्वनिमित्तक होने से कभी भी नष्ट नहीं होते हैं। इसलिये दोषों को आवरण निमित्तक मानना ही चाहिये ।
सांख्य-अज्ञान आदि दोष परनिमित्तक ही हैं क्योंकि ये स्वयं प्रधान-प्रकृति-जड़ के परिणाम हैं, आत्मा के नहीं।
जैनाचार्य-ये दोष सर्वथा पर पुद्गल के निमित्त से ही हों ऐसी बात नहीं है अन्यथा मुक्त जीवों में भी इनका प्रसंग आ जावेगा, क्योंकि पुद्गल वर्गणायें तो वहाँ भी मौजूद हैं किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है। उन सिद्धों में अज्ञान आदि दोष के न होने से केवल पुद्गल के निमित्त से वहाँ पर कर्मबंध नहीं होता है । निष्कर्ष यह निकलता है कि राग-द्वेष आदि से कर्मबंध होता है। और कर्म के उदय से दोष होते हैं। जैसे-ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव में अज्ञान, दर्शनावरण के उदय से अदर्शन, दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व, चारित्रमोहनीय के उदय से अचारित्र आदि दोष होते हैं। वैसे ही प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अंतराय आदि भावों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.