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________________ ५४ ] अष्टसहस्री [ कारिका धिकरणत्वं न स्यादिति चेदेवमेतत्' । ' तथान्यस्यापि प्रस्तुतेतरस्य वादिनोक्ता वितरस्य ' स्वपक्षमसाधयतो विजयासंभवान्निग्रहस्थानमयुक्तम् । स्वपक्षं साधयतस्तु' तत्सिद्ध्यैव' 'विजयसंभवादितरस्य पराजयप्राप्तर्नाप्रस्तुतादिवचनं निग्रहस्थानम् । 'साधनाङ्गस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानं, "स्वेष्टसाधनवचनमभ्युपगम्याप्रतिभया' 3 14 तूष्णींभावादित्यप्यनेन 15 प्रत्युक्तम्" । प्रतिवादिनो "प्यदोषोद्भावनं दोषस्यानुद्भासनं वानेन प्रत्युक्तं * "न्यायस्य समा 10 षट् आयतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव भव से जाति, जाति से जरामरण इस प्रकार से वृद्ध बौद्धों ने द्वादशांग लक्षण का प्ररूपण किया है । बौद्ध अप्रस्तुतवचन और इन द्वादश लक्षण कथन को निग्रहस्थान नहीं मानता है । इस पर जैनाचार्य कहते हैं । जैन - हाँ ! बात तो यही है । " तथा प्रतिज्ञावचन से अन्य भी अप्रस्तुत प्रकरणवादी के द्वारा कहे जाने पर इतर—प्रतिवादी यदि स्वपक्ष को सिद्ध न करके दूषण देता है तब तो अपने पक्ष को सिद्ध न कर सकने से उसकी विजय असंभव है । वादी ने अप्रस्तुत वचन बोला है अतः निग्रहस्थान को प्राप्त हुआ है ऐसा आप नहीं कह सकते हैं ।" स्वपक्ष को सिद्ध करते हुये प्रतिवादी की तो स्वपक्ष की सिद्धि से ही विजय हो जाती है और वादी की पराजय हो जाती है अतः अप्रस्तुतवचन निग्रहस्थान के लिये तो नहीं हो सकते हैं । "और साधनाङ्ग का कथन न करना निग्रहस्थान है" एवं प्रतिज्ञादिरूप अपने इष्ट साधनवचन को स्वीकार करके प्रतिभाशक्ति के न होने से न बोल सकना - चुप बैठना निग्रहस्थान है इत्यादि उपर्युक्त कथन से इन सबका भी खण्डन हो जाता है । भावार्थ- कोई कहते हैं कि अनुमान के सभी अङ्गों में से किसी अपने इष्ट सिद्धि के अङ्ग को न कहना या कारण प्रतिज्ञा आदिक हैं उन्हें स्वीकार तो कर लेना परन्तु बुद्धि अल्प होने से उनका प्रयोग ठीक से न कर सकना निग्रहस्थान है तो आचार्य कहते हैं कि ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि जय-पराजय की व्यवस्था स्वपरपक्ष सिद्धि-असिद्धि पर ही अवलम्बित है । " तथा प्रतिवादी के लिये भी अदोषोद्भावन अथवा दोषानुद्भासन (प्रतिवादी के दोषों को प्रकट न करना अथवा उस प्रतिवादी के दोषों को न समझना ) नाम का निग्रहस्थान है । इस मान्यता का भी खण्डन कर दिया गया है ।" 1 जैनोक्तिः । 2 प्रतिज्ञावचनप्रकारेण | 3 वादिन उक्तावितरस्येति वात्र पाठः । इतरस्य प्रतिवादिन इत्यर्थः । 8 वादिन: । ( दि० प्र० ) 4 वादिनः । 5 प्रतिवादिनः । 6 स्वपक्षसिद्धया । 7 प्रतिवादिनः । ( दि० प्र०) 9 साधनस्य स्वेष्टसिद्धेरङ्गानि कारणानि प्रतिज्ञादीनि । तेष्वन्यतमस्य । 10 ता (दि० प्र०) 11 प्रतिज्ञादिकम् । 12 प्रतिज्ञाय | 13 बुद्धिराहित्येन । 14 बौद्धाभिमतम् । 15 उक्तन्यायेन | 16 निराकृतम् । (ब्या० प्र०) 17 वादिना निर्दोषसाधने प्रयुक्ते सति । 18 प्रतिवादिनो निग्रहाधिकरणम् । अनुद्भावनमिति वा पाठ: । 19 पूर्वोक्तस्यैव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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