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________________ ५२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ८ च्छक्तं प्रति तदवचनात्, “विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः " इति वचनान्न पराजयाय कस्य - चित्प्रभवेत् इति वदन्तः सौगताः प्रतिपाद्यानुरोधत: साधर्म्यवचनेपि वैधर्म्यवचनं तद्वचनेपि च साधर्म्यवचनं पक्षादिवचनं वा नेच्छन्तीति किमपि महाद्भुतम् । तथा 'तदिष्टौ वा तद्वचनं निग्रहाधिकरणमित्य' युक्तमेव ' व्यवतिष्ठते । किञ्च क्वचित्पक्षधर्मत्वप्रदर्शनं " संश्च शब्द " इत्यविगानात् 12, त्रिलक्षणवचनसमर्थनं च' 3 1 असाधनाङ्गवचनमपजयप्राप्तिरिति " व्याहतं " *, संश्च शब्द इति वचनमन्तरेणापि शब्दे "सत्त्वप्रतीतेस्तस्य " निग्रहस्थानत्व इस प्रकार के वचन से हम बौद्धों के लिये पक्ष-धर्म प्रयोग आदि पराजय के लिये नहीं हो सकते हैं । जैन - इस प्रकार कहते हुये आप बौद्ध लोग शिष्यों के अनुरोध से साधर्म्य के प्रयोग में भी वैधर्म्य के प्रयोग को और वैधर्म्य के प्रयोग में भी साधर्म्य प्रयोग को अथवा पक्षादि वचनों को स्वीकार नहीं करते हैं यह तो एक महान् आश्चर्य ही है अथवा यदि कहें कि हम उपर्युक्त कथन को भी शिष्यों के अनुरोध से स्वीकार कर लेते हैं अर्थात् अन्वय कथन के करने पर भी व्यतिरेक प्रयोग को - और व्यतिरेक के कहने पर भी अन्वय प्रयोग को अथवा पक्ष आदि प्रयोग को स्वीकार कर लेते हैं तब तो " वचनाधिक्य" निग्रहस्थान है ये आपके उलाहना के वचन अयुक्त सिद्ध हो जाते हैं क्योंकि कहींशब्द धर्मी में पक्षधर्म को दिखलाना "संश्च शब्द इत्यविगानात्" और " शब्द सद्रूप है इसमें किसी प्रकार का विसंवाद नहीं है ।" यह कथन भी खण्डित हो जाता है । "त्रिलक्षणवचन का समर्थन भी खण्डित हो जाता है क्योंकि असाधनाङ्ग वचन से अपजय की प्राप्ति हो जाती है ।" भावार्थ - कहीं पर पक्षधर्म को दिखलाना "संश्च शब्द इत्यविगानात्" और त्रिलक्षणवचन का भी समर्थन करना तथा असाधनाङ्गवचन अपजय की प्राप्ति के लिये हैं यह भी कहना, यह सब आपका कथन बाधित हो जाता है अर्थात् "सर्वं क्षणिकं सत्त्वात् " इतने मात्र से शब्द में सत्त्व की प्रतीति हो जाती है फिर "संश्च शब्द : " इस वाक्य से पक्ष को दुहराना वचनाधिक्य दोष रूप से बाधित ही हो जाता है । 1 संश्च शब्द इति पक्षधर्माऽवचनात् । 2 तद्भावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । ख्याप्येते विदुषामित्यादि । 3 शिष्य : । ( दि० प्र० ) 4 सौगतस्य । ( ब्या० प्र० ) 5 प्रतिपाद्यानुरोधत: साधर्म्यवचनेपि वैधर्म्यवचनं तद्वचनेपि च साधर्म्यवचनं पक्षादिवचनं वेत्यादीष्टो सत्याम् । 6 इति वचः । 7 विरुद्धम् । ( दि० प्र० ) 8 सौगतः । ( दि० प्र०) 9 शब्दे धर्मिणि । 10 इति व्याहतमित्यग्रेणान्वयः । 11 सर्व क्षणिकं, सत्त्वादित्येतावता शब्दे सत्त्वप्रतीतेः संश्च शब्द इति पक्षधर्मस्याविगानमित्यर्थः । 12 अविवादात् । ( दि० प्र०) 13 इत्यपि व्याहतम् । कया ? असाधनाङ्गवचनादपजय प्राप्त्येत्यर्थः । 14 अस्माकं सौगतानाम् । ( दि० प्र०) 15 स्याद्वादी । ( दि० प्र० ) 16 इति हेतोः । 17 विरुद्धम् । ( ब्या० प्र० ) 18 अविगानादितिभाष्यस्य शब्दविवरणमेव तत् । ( दि० प्र०) 19 पक्षधर्म प्रदर्शनस्य । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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