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________________ ३४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ साधनस्याङ्ग, 'पक्षधर्मत्ववत्त दुभयस्यापि साधनाङ्गत्वात्, साधनस्य 'त्रिरूपत्वप्रतिज्ञानात् । ततो न ज्ञानाज्ञानमात्रनिबन्धनौ जयपराजयौ शक्यव्यवस्थौ, यथोदितदोषोपनिपातात्' । स्वपक्षसिध्द्यसिद्धिनिबन्धनौ तु तौ निरवद्यौ', पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्याभावात् 1°कस्यचित्कु-11 तश्चित्स्वपक्षसिद्धौ सुस्थितायां'2 परस्य पक्षसिद्धरसंभवात् सकृत्तजय पराजययोरप्रसक्तेः । न14 हि वादिना साध्याविनाभावनियमलक्षणेन हेतुना स्वपक्षसिद्धौ विधातुं शक्यायामपि 1 प्रतिज्ञोदाहरणादिवचनमनर्थकमपजयाय प्रकल्प्यते, 17तद्विघाताहेतुत्वात्ततः 1 प्रतिपक्षासिद्धेः, प्रतिपाद्या शयानुरोधतस्तत्प्रयोगात्त प्रतिपत्तिविशेषस्य प्रयोजनस्य सद्भावात् । नापि "हेतोविरुद्धतोद्भावनादेव प्रतिवादिनः स्वपक्षसिद्धौ सत्यामपि दोषान्तरानुद्भावनं व्यर्थ नहीं होगा। वादी और प्रतिवादी दोनों में से किसी एक के स्वपक्ष की सिद्धि व्यवस्थित होने पर दूसरे की पक्ष सिद्धि असम्भव है अतः एक साथ दोनों को जय अथवा पराजय का प्रसंग नहीं आ सकता है । जब हम वादी साध्य के साथ अविनाभावी नियम लक्षण वाले हेतु से स्वपक्ष की सिद्धि कर देते हैं तब प्रतिज्ञा उदाहरण आदि वचन यद्यपि अनर्थक हैं फिर भी हम वादी का आप पराजय उतने मात्र से सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि प्रतिज्ञादि वचन हमारे साध्य की सिद्धि में किसी प्रकार का विधात नहीं करते हैं और पुनः स्वपक्ष की सिद्धि के हो जाने पर प्रतिपक्ष की असिद्धि सुतरां घटित हो जाती है क्योंकि प्रतिपाद्यशिष्य के आशय के अनुरोध से—निमित्त से उनका प्रयोग होता है अतः इनसे ज्ञान विशेष रूप प्रयोजन का ही सद्भाव पाया जाता है। तथा हम वादी के द्वारा प्रयुक्त हेतु में विरुद्धता दोष को प्रगट करने से ही आप प्रतिवादी के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने पर भी दोषान्तर (प्रतिज्ञा, उदाहरणादि) को प्रगट न करना आप प्रतिवादी के पराजय के लिये नहीं है। अर्थात् वादी ने हेतु का प्रयोग किया और प्रतिवादी ने उसे विरुद्धहेत्वाभास सिद्ध करके ही अपने पक्ष की सिद्धि कर दी परन्तु वचनाधिक्यरूप दोषों का उद्भावन तो नहीं किया फिर भी उसे प्रतिवादी का पराजय नहीं कहा जा सकता है जैसा कि आप बौद्ध 1 पक्षधर्मवदिति पाठ०। (दि० प्र०) 2 पक्षधर्मत्वशब्देनात्र सपक्षे सत्त्वं, विपक्षाद्वयावृत्तिश्चेत्यपि ग्राह्यम् । 3 साधर्म्यवैधय॑त्येतदुभयस्य। 4 पक्षधर्मत्त्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाद्व्यावृत्तिः । (ब्या० प्र०) 5 हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वणितः । असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षत इति सौगतैरूक्तत्वात् । (ब्या० प्र०) 6 पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्यादिर्यथोदितः । 7 कथमयुक्तौ । (दि० प्र०) 8 जयपराजयौ । (दि० प्र०) 9 पक्षप्रतिपक्षग्रहणंसफलमेव । (दि० प्र०) 10 वादिप्रतिवादिनोर्मध्ये। 11 साधनात् । (दि० प्र०) 12 सुस्थितौ इति पा० । (दि० प्र०) 13 जयपराजयाऽप्रशक्तेः इति पा० । (ब्या० प्र०) 14 सौगताशङ्कां निराकरोति जैनः । 15 जैनापेक्षयोदाहरणमनर्थकम् । 16 पराजयाय। 17 स्वपक्षसिद्धिविनाशाऽनिमित्तत्वात् । (दि० प्र०) 18 स्वपक्षसिद्धौ जातायाम् । 19 शिष्याभिप्रायवशाद्वा प्रतिवाद्यभिप्रायवशात्तस्य प्रतिज्ञोदाहरणादि वचनस्य प्रयोगउच्चारणं घटते । एतदेवार्थ स्पष्टयति । तस्य प्रतिपाद्यस्य परिज्ञानलक्षणस्य प्रयोजनस्य सत्वमस्ति । (दि० प्र०) 20 प्रतिपाद्यनिश्चयलक्षणं प्रयोजनस्य सत्वमस्ति यतः । (दि० प्र०) 21 वादिनोक्तस्य । 22 बौद्धमतापेक्षया प्रतिज्ञोदाहरणादि दोषान्तरम । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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