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________________ जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद [ ३३ नस्य द्विष्टत्वादिति मतं तदपि न सङ्गतं, निगमनवचनदोषस्य' प्रतिज्ञावचनदोषो'द्भावनाद्गतस्या'नुद्भावनप्रसङ्गात् । प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं हि निगमनम् । 'तच्च प्रतिज्ञावचनस्य "दुष्टत्वप्रतिपत्तौ दुष्टं सामर्थ्यात्प्रतीयते एव । अथार्थादापन्नस्यापि निगमनवचनदुष्टत्वस्योद्भावनमदोषो"द्भावनभयादभिमन्यते12 तहि साधर्म्यवचनाद्वधर्म्यस्यार्थाया तस्याप्यसाधनाङ्गवचनभयादभिधानं मन्यतां, विशेषाभावात् । न हि साधर्म्यमेव वैधर्म्यमेव वा जावे फिर भी उसका प्रयोग किया जावे उसमें ही हमारा द्वष है । अर्थात् अन्वयवचन से ही व्यतिरेकवचन का ज्ञान हो जाता है फिर भी उसका प्रयोग करना दोषास्पद है। जैन—आपका यह कथन भी असंगत है । प्रतिज्ञावचन में दोष प्रगट करने से निगमनवचन का दोष भी अर्थापत्ति से ही सिद्ध होता है पुनः उसको भी प्रगट नहीं करना चाहिये क्योंकि प्रतिज्ञा को दुहराना ही निगमन है। प्रतिज्ञा का प्रयोग करना दोष है ऐसा कहने पर तो स्वयं ही अर्थापत्तिरूप सामर्थ्य से निगमन का प्रयोग दूषित हो ही जाता है पुनः उसको दूषित करना भी दोष ही है। बौद्ध-यद्यपि निगमन का प्रयोग दोष युक्त है ऐसा अर्थापत्ति से प्राप्त होता है तो भी उसको प्रगट करना उचित है क्योंकि "निगमन के प्रयोग को दूषित नहीं ठहराया है, अत: उसका प्रयोग दोष रहित हो सकता है ऐसा कोई न समझ लेवे" इसी डर से ही हम निगमन का प्रयोग स्वीकार कर लेते हैं। जैन- तब तो साधर्म्यवचन के प्रयोग से वैधर्म्यवचन स्वयं अर्थापत्ति से आ जाता है तो भी "वैधर्म्य के प्रयोग को दूषित नहीं किया अतः वह हेतु का अङ्ग हो जावेगा" इस भय से ही वैधर्म वचन का प्रयोग करना उचित है ऐसा भी आप मान लीजिये क्योंकि निगमन और व्यतिरेकवचन इन दोनों के प्रयोग समान ही हैं तथा अन्वय अथवा व्यतिरेक ही हेतु का अङ्ग हो ऐसा तो नहीं है। पक्षधर्मत्व आदि के समान दोनों ही हेतु के अङ्ग हैं और आपने भी तो हेतु के तीन रूप माने हैंपक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति । इनमें सपक्षसत्त्व तो अन्वयरूप है और विपक्षव्यावृत्ति ही तो व्यतिरेकरूप है। अत: ज्ञान और अज्ञानमात्र के निमित्त से ही जय-पराजय की शक्य नहीं है क्योंकि उपर्युक्त कहे हुये दोषों का प्रसंग आता ही आता है। इसीलिये स्वपक्ष सिद्धि और असिद्धि के निमित्त से ही जय-पराजय की व्यवस्था निर्दोष है पुनः पक्ष-प्रतिपक्ष को ग्रहण करना 1 एव । (ब्या० प्र०) 2 तथैवास्त्विति न वक्तव्यं सौगतेन प्रतिज्ञावयवस्येवनिगमनावयवस्यापि नियमेन निराकरणादितीदमत्राकूतम् । (दि० प्र०) 3 एव । (ब्या० प्र०) 4 ज्ञातस्यार्थादापन्नस्य वा। 5 निगमनम् । (दि० प्र०) 6 द्विष्टत्व इति पा० । (दि० प्र०) 7 द्विष्टसामर्थ्यात् इति पा० । (दि० प्र०) 8 निगमनवचनस्य पुनरपि दोषोभावनं कथम् ? सौगतेन प्रतिज्ञावयवस्येव निगमनावयवस्यापि नियमेन निवारणात् । १ द्विष्टत्वस्योद्भावनम् इति पा० । (दि० प्र०) 10 पुनरुद्भावनम् । 11 निगमनं न दूषितं तर्हि अदोषं भविष्यतीति भयात्पुन सौगतः। 13 अर्थान्तराया तस्यान्य इति पा० । (दि० प्र०) 14 (अर्थादायातस्य)। 15 वैधर्म्यवचनं न दूषितं तर्हि साधनाङ्ग भविष्यतीति भयात्पुनर्वधर्म्यवचनं प्रोक्तम् । 16 निगमनवैधर्म्यवचनयोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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