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________________ अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिये, हजारों ग्रन्थों को सुनने/पढ़ने से क्या प्रयोजन/लाभ है। जबकि एक अष्टसहस्री से ही स्वसमय अर्थात् आत्मा-जैन सिद्धान्त और उसके तलस्पर्शी रहस्यों का बोध हो जाता है तथा पर समय अर्थात् अनात्म अन्य मतावलम्बियों के सिद्धान्त और भ्रांत धारणाओं का एवं कपोलकल्पनाओं का सर्वथा निराकरण हो जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के महत्व पर स्वयं माताजी का अभिमत "कुछ महानुभावों की यह धारणा है कि न्यायशास्त्रों में आत्मा का वर्णन नहीं है किन्तु यह उनकी मात्र भ्रांति है । प्रमाण-सच्चे ज्ञान का एवं आप्त-कर्ममल रहित आत्मा का इस में विशद वर्णन है । आत्मा या अन्य द्रव्यों को समझने के लिये स्यादाद ही महान् आधार है जबकि यह ग्रन्थ स्याद्वाद कथनमय है।" माताजी का कहना है कि "सप्तभंगीमय स्याद्वाद प्रक्रिया का स्थल-स्थल पर जितना अधिक विवेचन अष्टसहस्री में है उतना वर्तमान में उपलब्ध जैन सिद्धान्त ग्रन्थों में किन्हीं में भी नहीं है। यह ग्रन्थ स्याद्वाद प्रक्रिया को समझने में सर्वोपरि है।" युग की अनुपम देन ग्रन्थ रचना काल के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर से लेकर अब तक जितने भी ग्रन्थ लिखे गये वे सब पुरुष वर्ग द्वारा लिखे गये या मुनियों-आचार्यों ने लिखे अथवा विद्वान पंडितों ने लिखे । पूर्व से पश्चिम तक अथवा उत्तर से दक्षिण तक किसी भी शास्त्र भण्डार में किसी श्राविका अथवा आर्यिका द्वारा लिखित एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। ग्रन्थ लेखन का यह कार्य जो कि महिलाओं के द्वारा नहीं हो पाया था उसका शुभारम्भ पूज्य ज्ञानमती माताजी ने किया। पूज्य माताजी के पश्चात् अन्य और भी आयिका माताओं ने ग्रन्थ लेखन करके साहित्यधारा को प्रवाहित किया है। इस युग की यह एक बड़ी भारी ऐतिहासिक देन है कि न्याय दर्शन जैसे क्लिष्ट एवं शुष्क विषयक ग्रन्थ का अनुवाद कठिनतम संयम को धारण करने वाली गणिनी आयिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा किया जाकर इतनी सुन्दरता एवं विशेषता के साथ प्रकाशित हुआ है। अनेक विद्वानों को यह सुनकर विश्वास नहीं होता था कि किन्हीं आयिका जी ने अष्टसहस्री का अनुवाद किया है। किन्तु अष्टसहस्री प्रथम भाग जब सबके हाथों में पहुंचा तो सब आश्चर्यचकित रह गये । स्व० पं० कैलाशचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री जैसे साधुओं के आलोचक विद्वान ने भी यह कहा कि-'सौ विद्वान मिलकर जिस काम को नहीं कर पाते उसे अकेली ज्ञानमती माताजी ने कर दिया। अन्य विद्वानों के अभिमत अष्टसहस्री प्रथम भाग के छपे हए कुछ पृष्ठों का अवलोकन करके पं० परमेष्ठीदास जी ललितपुर, डॉ. लालबहादुर जी शास्त्री, पं० गुलाबचंद जी जैनदर्शनाचार्य-प्राचार्य संस्कृत महाविद्यालय जयपुर, पं० बाबूलाल जी जमादार बड़ोत; पं० मूलचंदजी शास्त्री श्री महावीर जी, डॉ० ए० एन० उपाध्याय, पं० फूलचंद जी सिद्धांत शास्त्री, पं० मोतीलाल जी कोठारी फलटन आदि अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने बड़ी प्रसन्नता एवं गौरव व्यक्त किया कि अभी भी अष्टसहस्री जैसे न्याय के महान् ग्रन्थों का अध्ययन करने वाले ही नहीं अपितु उसके अनुवाद जैसे दुरूह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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