________________
से स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्र ने इसी मंगल-स्तोत्र पर उसके व्याख्यान में 'आप्तमीमांसा' लिखी और स्वयं विद्यानन्द ने भी उसी की व्याख्या में अष्टसहस्री के अतिरिक्त 'आप्तपरीक्षा' रची। सूत्रकार एवं शास्त्रकार पदों से विद्यानन्द का स्पष्ट अभिप्राय तत्त्वार्थ सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ से है, तत्त्वार्थ वृत्तिकार आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि से नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में उक्त मंगल-स्तोत्र को अपना मङ्गलाचरण बना लिया गया है और इसी कारण उसकी व्याख्या नहीं की गयी । सर्वार्थसिद्धि में जो तत्त्वार्थशास्त्र के अवतरण की प्रश्नोत्तर रूप उत्थानिका दी गयी है. उसका यह अर्थ नहीं कि प्रश्नकर्ता भव्य के प्रश्न करने पर आचार्य ने सारा व्याख्यान देकर उसे तत्काल निबद्ध किया है। अपितु उसने मोक्ष और मोक्षमार्ग की जिज्ञासा प्रकट की। तदनुसार आचार्य ने उसकी या उस जैसे अनेक भव्यों की जिज्ञासा-शांति के लिए उक्त प्रकार के ग्रन्थ-निर्माण की आवश्यकता अनुभव करके 'तत्त्वार्थ सत्र' शास्त्र की रचना की और उसके आरम्भ में पूर्व परम्परानुसार उक्त स्तोत्र को मंगलाचरण के रूप में निबद्ध किया।
अत: मंगल-स्तोत्र के विषय में अधिक न लिखकर अब इतना ही लिखना पर्याप्त है, कि वह आचार्य गद्धपिच्छरचित तत्त्वार्थ सूत्र का ही मंगलाचरण है, सर्वार्थ सिद्धि का नहीं।
इस विषय में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माता जी ने अष्टसहस्री और श्लोकवार्तिक ग्रन्थ से अनेकों प्रमाण निकाले हैं। उनमें से कुछ उद्धरण वानगी के रूप में यहाँ दिये जा रहे हैं
अष्टसहस्री के मंगलाचरण में ही प्रारम्भ में “शास्त्रावतार रचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलं क्रियते मायास्य" इस उत्तरार्ध में श्री विद्यानंदि महोदय ने स्पष्ट कह दिया है कि शास्त्रावतार-तत्त्वार्थ सूत्र महाशास्त्र के प्रारम्भमें रचित स्तुति के गोचर जो आप्त हैं उनकी मीमांसा रूप यह कृति मेरे द्वारा अलंकृत की जाती है।
टिप्पणीकार श्री लघु समंतभद्र ने भी इसे अत्यधिक विस्तृत कर दिया है
"इह हि खलु पुरा स्वकीयनिरवद्यविद्यासंपदा गणधरप्रत्येकबुद्धश्रुत-केवलिदशपूर्वाणां सूत्रकृन्महर्षीणां महिमानमात्मसात्कुर्वद्भिरुमास्वामिपादराचार्यवर्य रासूत्रितस्य तत्त्वार्थाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं महाभाष्यमपनिबन्धन्तः स्याद्वादविद्याग्रगुरवः श्रीस्वामिसमंतभद्राचार्यास्तत्र मंगलपुरस्सर-स्तवविषयपरमाप्त-गुणातिशय-परीक्षाम्पक्षिप्तवंतो देवागमाभिधानस्य प्रवचनतीर्थस्य सृष्टिमापूरयाञ्चक्रिरे ।"
तत्त्वार्थाधिगमरूपमोक्षशास्त्र के ऊपर 'गंधहस्ति' नाम का महाभाष्य लिखते हए श्री समंतभद्र स्वामी ने मंगलाचरण में स्तुति के विषय को प्राप्त परम आप्त के गुणों के अतिशयों की परीक्षा करते हये 'देवागम' नामक प्रवचनतीर्थ की सष्टि को बनाया है।
स्वयं श्री विद्यानंद महोदय ने छठी कारिका की उत्थानिका में-"नन्वस्तु नामैवं कस्यचित्कर्म भूभृद्भदित्वमिव विश्व तत्त्व साक्षात्कारित्वं, प्रमाण सद्भावात् । स तु परमात्माईन्नेवेति कथं निश्चयो यतोहमेव महानभिवंद्यो भवतामिति...."
कर्म पर्वत भेदन करने वाले के समान कोई महापुरुष विश्व तत्त्व को साक्षात् करने वाले हो जावें, किन्तु वह परमात्मा अहंत हो हैं ? यह निश्चय कैसे हुआ कि जिससे 'मैं ही आपके द्वारा अभिवंद्य होऊँ, मानों ऐसा प्रश्न श्री समंतभद्र ने स्वयं भगवान के सामने रखा है। आगे सातवीं कारिका की उत्थानिका में भी कहते हैं कि-"भगवतोऽहंत एव युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वेन सुनिश्चितासंभवद्बाधक प्रमाणत्वेन च सर्वज्ञत्ववीतरागत्वसाधनात् । ततस्त्वमेव महान मोक्षमार्गस्य प्रणेता नान्यः कपिलादिः ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org