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अष्टसहस्री
[ कारिका ६मर्थस्य परिच्छित्तिनिश्चयात्मकार्थपरिच्छेदव्यवहारहेतुरुत्पद्यते नासत्याम् । अतस्तस्याः साधकतमत्वमिति 'तवाकृतं तदपि न समीचीनं, सन्निकर्षादेव तदुत्पत्त्यविरोधात् । कथमचेतनात्सन्निकर्षाच्चेतनस्यार्थनिश्चयस्योत्पत्तिर्न विरुध्यते इति चेत् तवापि कथमचेतना दिन्द्रियादेरविकल्पदर्शनस्य चेतनस्योत्पत्तिरविरुद्धा? 'चेतनान्मनस्कारादिन्द्रियादिसहकारिणो दर्शनस्योत्पत्तिरिति चेतहि चेतनादात्मनः सन्निकर्षसहकारिणोऽर्थनिश्चयोत्पत्तिरपि कथंविरुध्यते ? यतः स्वार्थव्यवसायात्मकोधिगमो न भवेत् ।
[सन्निकर्षवत् निर्विकल्पदर्शनमपि प्रमाणं नास्तीति प्रसाध्याधुना तर्कस्य प्रमाणतां साधयंति जैनाचार्याः ] स च साकल्येन साध्यसाधनसम्बन्धस्तर्कादेवेति प्रमाणं तर्कः, स्वार्थाधिगमफलत्वात्
जैन-पदार्थ का जानना रूप ज्ञान उससे भिन्न नहीं है क्योंकि अर्थ परिच्छित्ति-ज्ञान उससे ही उत्पन्न होता है अर्थात् पदार्थ के ज्ञान की उत्पत्ति के बिना अन्य कोई अर्थ परिच्छित्ति नहीं है।
बौद्ध-उस ज्ञान से भिन्न "परिच्छित्ति उत्पन्न हुई" इस प्रकार से अर्थ परिच्छित्ति है। अर्थात् पदार्थ से ज्ञान उत्पन्न होता ही है।
जैन-वह जाना हआ ज्ञान ही अर्थ कहा जाता है।
बौद्ध-निर्विकल्प दर्शन के होने पर अर्थ परिच्छित्ति होती जो कि निश्चयात्मक पदार्थ के ज्ञान रूप व्यवहार में हेतु है क्योंकि निर्विकल्प दर्शन के नहीं होने पर नहीं होता है अत: वह परिच्छित्ति साधकतम हैं।
जैन-यह भी कथन समीचीन नहीं है क्योंकि सन्निकर्ष से ही उस परिच्छित्ति की उत्पत्ति में विरोध नहीं है।
बौद्ध-अचेतन सन्निकर्ष से पदार्थ के ज्ञान रूप चेतन की उत्पत्ति विरुद्ध कैसे नहीं है ?
जैन- तब तो आप के यहाँ भी अचेतन इन्द्रियादि से निर्विकल्प दर्शन रूप चेतन की उत्पत्ति अविरुद्ध कैसे होगी?
बौद्ध - इन्द्रियादि सहकारी कारण जिसके साथ हैं ऐसे चेतन रूप मनोव्यापार से दर्शन की उत्पत्ति होती है।
जैन-तब तो जिसमें सन्निकर्ष सहकारी है ऐसे चेतन आत्मा से पदार्थ के निश्चय की भी उत्पत्ति होने में क्या विरोध है ? जिससे कि अधिगम (ज्ञान) स्वार्थ व्यवसायात्मक न होवे अर्थात् ज्ञान स्वार्थ व्यवसायात्मक ही होता है। । सन्निकर्ष के समान निविकल्पदर्शन भी प्रमाण नहीं है इस बात को सिद्ध करके अब जैनाचार्य
तर्क की प्रमाणता को सिद्ध करते हैं ] और संपूर्णतया वह साध्य-साधन के सम्बन्ध का ज्ञान तर्क से ही होता है इसलिए तर्कज्ञान 1 बौद्धस्य। 2 मध्यवर्तिनिर्विकल्पकदृष्टिविना। (ब्या० प्र०) 3 मनोव्यापारात् । 4 का। (ब्या० प्र०) 5 सम्बन्धे इति पा. । विषये । तर्कादेव-उत्पद्यते इति-तथा च । (ब्या०प्र०)
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