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निर्विकल्पदर्शन अप्रमाण है ]
प्रथम परिच्छेद
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प्रमाणमस्तु । तस्यासाधक'तमत्वान्न प्रमाणत्वमिति चेत्कुतस्तस्यासाधकतमत्वम् ? अचेतनत्वाद्घटादिवदिति चेद्दर्शनस्याप्यसाधकतमत्वं चेतनत्वात्सुषुप्तचैतन्यवत्कि न स्यात् ? यस्य भावेर्थः परिच्छिन्नो व्यवह्नियतेऽभावे चोऽपरिच्छिन्नस्तद्दर्शनं साधकतममिति चेत्सन्निकर्षः साधकतमोस्तु, भावाभावयो'स्तद्वत्ता साधकतमत्वमिति वचनात् । न हि सन्निकर्षस्य भावे भाववत्त्वमभावेऽभाववत्त्वमर्थपरिच्छित्तरप्रतीतम् । नाप्यर्थस्यान्यत् परिच्छिन्नत्वं, तत्परिच्छित्त्युत्पत्तेः । परिच्छित्तरुत्पन्ना चेत्' परिच्छिन्नोर्थ उच्यते । अथ निर्विकल्पकदृष्टौ 'सत्या
जैन-इसी हेतु से ही दर्शन भी प्रामाणीक नहीं है सुषप्त चैतन्य के समान क्योंकि दर्शन (निर्विकल्प प्रत्यक्ष) स्वयं संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय का व्यवच्छेदक नहीं है।
बौद्ध-संशयादि के व्यवच्छेदी निश्चय-विकल्प ज्ञान को उत्पन्न करने वाला होने से वह दर्शन प्रमाण है।
जैन-इसी हेतु से सन्निकर्ष भी प्रमाण हो जावे क्या बाधा है ? बौद्ध-वह सन्निकर्ष प्रमिति क्रिया के प्रति साधकतम नहीं होने से प्रमाण नहीं है। जैन-वह सन्निकर्ष साधकतम क्यों नहीं है ? बौद्ध–वह सन्निकर्ष अचेतन है घटादि के समान ।
जैन-"तब तो आपका माना हुआ दर्शन भी साधकतम नहीं है क्योंकि वह चेतन है सुषुप्त चेतन के समान ।" ऐसा भी आप क्यों न मान लेवें ? अर्थात् जो चेतन है वह साधकतम हो ऐसा कोई नियम नहीं है।
बौद्ध-जिसके होने पर पदार्थ जान लिये गये हैं ऐसा व्यवहार होता है एवं जिसके न होने पर नहीं जाने गये हैं ऐसा व्यवहार होता है वह दर्शन साधकतम है।
जैन-यदि ऐसा कहते हो तब तो सन्निकर्ष भी साधकतम हो जावे क्योंकि "भावाभावयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वं" यह न्याय का वचन है अर्थात् जिसके होने पर जो होवे और न होने पर न होवे वही साधकतम है। सन्निकर्ष के भाव में अर्थ परिच्छित्ति का होना एवं अभाव में नहीं होना ऐसी प्रतीति नहीं हो यह बात नहीं है।
बौद्ध-फिर भी पदार्थ जाना गया है यह व्यवहार कैसे होता है।
1 प्रमिति प्रति। 2 (जैन आह) यच्चेतन तत्साधकतममेवेति न नियमोस्ति । 3 (सन्निकर्षस्य भावाभावयोः सतोरर्थपरिच्छित्तेर्भावाभाववत्तास्तीति सैव साधकतमत्वम्)। 4 भावेचाभाव इति पा.। (ब्या० प्र०) 5 तथापि कथमर्थः परिच्छिन्नो व्यवह्रियते इत्याशङ्कायामाह जैनः। 6 अर्थपरिच्छित्त्युत्पत्तिमन्तरा अन्यदर्थपरिच्छिन्नत्वं नास्तीत्यर्थः । 7 तत्परिच्छित्तेरन्यत् "परिच्छित्तिरुत्पन्ना" इत्यर्थपरिच्छिन्नत्वमस्ति चेदित्यर्थो बौद्धशङ्कायाः। 8 (जैन आह)। 9 सन्निकर्षस्य भावेऽपि मध्ये निविकल्पकदष्टौ सत्यामेव परिच्छित्तिरुत्पद्यते नान्यथा ततः सन्निकर्षस्य भावे भाववत्त्वमित्यादि प्रागुक्तमयुक्तमिति ताथागताकृतं । (ब्या० प्र०)
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