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________________ ४२२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६[ भगवतोऽनेकांतमतं प्रसिद्धेन न बाध्यते ] तत्प्रसिद्धेन न बाध्यते । प्रमाणतः सिद्धं प्रसिद्धम् । तदेव कस्यचिद्बाधनं युक्तम् । विशेषणमे'तत्परमतापेक्षम्, अप्रसिद्धनाप्यनित्यत्वाद्येकान्तधर्मेण 'बाधाऽकल्पनात् * । न ह्यनेकान्तशासनस्य 'प्रत्यक्षतः सिद्धोस्त्यनित्यत्वधर्मो बाधकः, सर्वथा नित्यत्वादिधर्मवत् । तालु आदि के निमित्त से रहित, वायु के निरोध की प्रकटता से स्पष्ट, उस-उस अभीष्ट वस्तु को कथन करने वाले सम्पूर्ण भाषा रूप, दूर और निकट से एक सदृश सुनाई देने वाले ऐसे निरुपम जिनेंद्र भगवान् के वचन सदैव हम सभी की रक्षा करें। तिलोय पण्णत्ति ग्रंथ में भी कहा है जोयणपमाण संठिदतिरियामरमणुवणिवह पडिवोहो । मिदमधरगभीरतराविसदविसयसयल - भासाहि ॥६०।। अठठरस महाभासा खल्लयभासा वि सत्तसयसखा। अक्खर अनक्खरप्पय सण्णी जीवाण सयलभासाओ।।६।। एदासि भासाणं तालुवदंतोट्ठकण्ठ-वावारं । परहरिय एक्ककालं भव्व जणाणंद-कर-भासो ।।।।६२।। अर्थ-वे अहंत भगवान् मृदु, मधुर, अतिगम्भीर और विषय को विशद करने वाली भाषाओं से एक योजन प्रमाण समवशरण सभा में स्थित तिर्यंच, देव और मनुष्यों के समूह को प्रतिबोधित करने वाले हैं. संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षर रूप अठारह महाभाषा । भाषाओं में परिणत हुई और ताल, दंत, ओष्ठ तथा कण्ठ के हलन-चलन रूप व्यापार से रहित हो कर एक ही समय में भव्यजनों को आनन्द करने वाली ऐसी दिव्यध्वनि-दिव्यभाषा के स्वामी हैं। ऐसी दिव्यध्वनि के खिरने में तीर्थंकर नामकर्म का उदय विशेष ही प्रमुख कारण है क्योंकि मोहनीय कर्म के अभाव में तीर्थंकरों के केवली अवस्था में इच्छा का होना असम्भव है । [ भगवान् का अनेकांतशासन प्रसिद्ध प्रमाण से बाधित नहीं होता है ] भगवान् का इष्ट (शासन) प्रसिद्ध प्रमाण से बाधित नहीं होता है । प्रमाण से जो सिद्ध है वह प्रसिद्ध कहलाता है, वही किसी से बाधित होना युक्त है। यह प्रसिद्ध विशेषण परमत की अपेक्षा से है क्योंकि अन्यमतो जन प्रसिद्ध भो अनित्यत्व आदि एकान्त धर्म के द्वारा आपके मत में बाधा नहीं दे सकते हैं ।* 1 परप्रसिद्धेनानित्यत्वाद्यकांतेन । (ब्या० प्र०) 2 बाधकं । (ब्या० प्र०) 3 प्रसिद्धमिति । 4 तवेष्टस्य मतस्य । 5 परैः। 6 बौद्धं प्रत्याह स्याद्वादी। 7 स्याद्वादी वदति । प्रत्यक्षेण असिद्धः सर्वथा अनित्यस्वरूपएकांत अनेकांतमतस्यबाधाकृन्नहि यथा सर्वथा अनित्यरूपः । सौगत आह । तहि अनुमानेन सिद्धः एकान्त: अनेकांतस्य बाधको भविष्यतीति चेत् । स्याद्वाद्याह एवं न कस्मात् ? प्रमाणं विना तर्कज्ञाननिष्पत्तरगीकरणात । दि. प्र. । 8 प्रसिद्धोऽत्य इति पा. । (ब्या० प्र०) 9 यथा सर्वथा नित्यत्वादिधर्मो नानेकान्तस्य बाधकस्तथा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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