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________________ अर्हत की वीतरागता पर विचार ] प्रथम परिच्छेद [ ४२१ भावार्थ - किसी का कहना है कि भगवान् के वचन इच्छा पूर्वक ही होते हैं । इस पर जैनाचार्यों ने स्पष्ट कह दिया है कि लोक व्यवहार में भी सोते हुए मनुष्य के वचन और गोत्रस्खलन आदि के वचन बिना इच्छा के ही देखे जाते हैं । उसने कहा कि सोने के पहले जाग्रत अवस्था में इच्छा थी तो आचार्य ने इसका भी निराकरण कर दिया है और इस बात को सिद्ध कर दिया है कि आत्मा में ज्ञान और इन्द्रियों की कुशलता ही वचन प्रवृत्ति में हेतु है । तब फिर शंकाकार का कहना है कि ज्ञान और इन्द्रियों की कुशलता के होने पर वचन नहीं भी देखे जाते हैं । यदि उसके बोलने की इच्छा नहीं है अतः बोलने की इच्छा तो वचन प्रवृत्ति में सहकारी कारण है ही है । पुनश्च आचार्य इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका कहना है कि उल्लू बिल्ली आदि प्राणी अन्जनगुटिका सिद्ध करने वाले अंजन चोर आदि बिना प्रकाश के प्रदार्थों को देख लेते हैं । हम संसार में ज्ञान और इंद्रियों की पटुता के बिना बोलने की इच्छा मात्र से भी किसी में वचन प्रवृत्ति नहीं देखते हैं किसी को बोलने की, सभा में व्याख्यान करने की तो इच्छा बहुत है किन्तु न तो शास्त्रों का किंचित् भी ज्ञान ही है और न ही आँखों से अक्षर शुद्ध पढ़ना आता है, न कान से स्पष्ट सुनना आता है और न ही स्पष्ट वाणी का उच्चारण ही कर सकता है । अतः क्या वह बोलने की इच्छा मात्र से कुशल वक्ता कहलायेगा ? बालकों को शब्द से या अर्थ से दोनों तरह से भी शास्त्र ज्ञान नहीं है अथवा गूंगे मनुष्य, बहरे या अन्धे मनुष्य पढ़ने, लिखने और बोलने में असमर्थ हैं किन्तु व्याख्यान की इच्छा तो उनमें भी हो सकती है क्या वे कुशल वक्ता कहला सकते हैं ? शक्ति रूप ज्ञान, क्षयोपशमज्ञान या पूर्णज्ञान की विशेषता और इंद्रियों की में उपदेश देने में हेतु है न कि बोलने की इच्छा मात्र । कोई और बुद्धिमान् निकले तो उन्होंने कह दिया कि दोषों का समुदाय ही वचन प्रवृत्ति में हेतु है और आप के भगवान् वक्ता हैं इसलिये निर्दोष सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं । इसलिये भाई ! प्रतिभाकुशलता ही वचन बोलने इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! दोषों के साथ वचनों का अन्वय व्यतिरेक तो है नहीं । मतलब - दोषों की वृद्धि में वचनों की विशेषता पाई जावे और दोषों के अभाव में वचनों का अभाव होवे ऐसा नियम तो है नहीं, प्रत्युत इससे विपरीत ही देखा जाता है कि दोषों की मंदता - तरतमता में वचनों की विशेषता और दोषों की बहुलता में वचनों की असभ्यता - अकुशलता ही व्यवहार में दिखती है । अतः ज्ञान के गुण और दोषों से ही वचनों में सत्यता, असत्यता पाई जाती है इसलिये निर्दोष – राग, द्वेष, मोह आदि अठारह दोषों से रहित सर्वज्ञ परमेष्ठी ही सच्चे हितोपदेशी हो सकते हैं । एवं उनके वचनों में इच्छा या दोष आदि कारण नहीं हैं प्रत्युत भव्यों का पुण्य विशेष और सर्वज्ञ के तीर्थंकर नाम कर्म का उदय विशेष ही भगवान् की दिव्यध्वनि में कारण माना गया है अन्यत्र ग्रंथों में भी इसी बात को पुष्ट किया है गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषैरपेतं हितं । कंठौष्ठादिवचों निमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम् । स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेष भाषात्मकं । दूरासन्नसमं समं निरुपमं जैन वचः पातु नः । ॥ समव. पृ. १३६॥ भगवान् के वचन गम्भीर, मधुर, मनोहरतर हैं, दोषों से रहित और हितकर हैं, कंठ, ओष्ठ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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