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अष्टसहस्री
[ कारिका ६
ताकाराऽनुमेया सम्भवत्येवेति चेत् किं पुनस्तदनुमानम् ? ' विवादाध्यासिता वागादिप्रवृत्ति
कहो तो वह अनुमान क्या है ? ऐसा प्रश्न मन में रख कर कहते हैं कि हे बौद्ध ! प्रवृत्ति में हेतु है यदि आप ऐसा कहते हैं
रूप से अनुमान ज्ञान के विषयभूत संभव ही है । यदि ऐसा होने पर बौद्ध उत्तर देता है । अर्थात् यहां दो विकल्पों को प्रतिसंविदिताकार इच्छा उस काल में संभव होती हुई वचन तब तो भिन्न इच्छाओं के समान उस समय उसका स्मरण होना चाहिये किन्तु उस प्रकार से स्मरण होता नहीं है । प्रतिवचन रूप नियम होने से जाग्रत अवस्था में जिसका आकार जाना हुआ रहता है। उसे प्रतिसंविदिताकार कहते हैं । स्याद्वादी कहता है कि उस समय सोते हुये आदिजनों में सम्यग्ज्ञानाकार इच्छा उत्पन्न होती हुई पुनरपि स्मरण में आती है जैसे कि जाग्रत अवस्था में उत्पन्न होती हुई वांछा स्मृति में आती है इससे क्या निष्कर्ष निकला ? सोती हुई आदि अवस्था में वचन व्यापार इच्छापूर्वक नहीं होता यह अभिप्राय समझना चाहिये ।
कोई कहे कि प्रतिसंविदिताकार इच्छा के अभाव में अप्रतिसंविदिताकार इच्छा संभव है ऐसा कहने पर उत्तर देते हैं कि अप्रतिसंविदिताकार इच्छा संभव नहीं है जो पश्चात् स्मरण में नहीं आ सकती है किन्तु सम्यग्ज्ञानाकार इच्छा ही संभव है अन्य सम्भव नहीं है ।
विशेषार्थ -- उस समय जो पहले इच्छा की थी वही इच्छा होती हुई वहां (स्वप्न में) या गोत्रस्खलन में स्मरण की जाती है । जिस इच्छा का संस्कार पहले नहीं है वह संभव न होने से वहां स्मरण नहीं की जाती ।
शंका - पूर्वकाल में होने वाली इच्छा उस समय वचन आदि की प्रवृत्ति में कारण है । अतः जो इच्छा पहले नहीं हुई है वह इच्छा भी वहां उत्पन्न होती है इसका भी हम अनुमान कर सकते हैं । प्रतिशंका - यदि ऐसा है तो बताइये वह अनुमान क्या है ?
समाधान -- ( वह अनुमान इस प्रकार है) स्वप्न काल में होने वाली वचन आदि की प्रवृत्ति इच्छापूर्वक होती है क्योंकि वह वचन आदि की प्रवृत्ति है प्रसिद्ध इच्छापूर्वक होने वाली वचन आदि की प्रवृत्ति के समान ।
वादी यह कहना चाहता है कि सर्वज्ञ बिना इच्छा के उपदेश, विहार आदि नहीं कर सकता है। क्योंकि हम सर्वसाधारण वक्ता तो इच्छापूर्वक ही बोलते हुये पाये जाते हैं । इसके उत्तर में जैनों का कहना है कि यह कोई नियम नहीं है क्योंकि सोते समय मनुष्य बड़बड़ाता रहता है या हम कहना कुछ चाहते हैं और हमारे मुह से कुछ निकलता है । इन दोनों स्थितियों में हमारी इच्छा कारण नहीं है ।
ऐसा भी नहीं समझना चाहिये कि जाग्रत् अवस्था में हमने जो इच्छा की थी वही वहां साकार होकर स्मरण में आ जाती है । जाग्रत् मनुष्य में जिस प्रकार की इच्छा होती है वैसी इच्छा वहां सम्भव नहीं है अतः वादी का यह अनुमान करना कि " पूर्व कालिक इच्छा ही पुनः संस्कार में आकर वागादि प्रवृत्ति का कारण बन जाती है" गलत है ।
1 ( परः प्राह ) स्वप्नसमयिकी । (ब्या० प्र० )
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