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सर्वज्ञ के वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं । प्रथम परिच्छेद
[ ४१५ [ सर्वज्ञवचनानीच्छापूर्व कान्येवेति मन्यमाने को दोषस्तस्य समाधानं ] 'तदभ्युपगमे को दोष इति चेत्, नियमाभ्युपगमे सुषप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिनं स्यात् * न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ 'वाग्व्याहारादिहेतुरिच्छास्ति' । प्रतिसंविदिता'कारेच्छा तदा संभवन्ती पुनः स्मर्येत वाञ्छान्सरवत् । न ह्यप्रतिसंविदिताकारेछा संभवति या पण्चान्न 1 स्मर्यते । "पूर्वकालभाविनीच्छा तदा वागादिप्रवृत्तिहेतुरप्रतिसंविदि
नैयायिक-“सर्वज्ञ भगवान् इच्छा के बिना नहीं बोलते हैं क्योंकि वे वक्ता हैं हम लोगों के समान ।" इस अनुमान से निरभिप्राय वचनों का विरोध सिद्ध हो जाता है। अर्थात् अभिप्रायरहित कोई पुरुष वचन नहीं बोल सकते ।
जैन-यह नियम नहीं है कि वचन इच्छापूर्वक ही हों। [ सर्वज्ञ के वचन इच्छापूर्वक ही होते हैं ऐसी मान्यता में क्या दोष है ? इसका समाधान ] नैयायिक-वचन को इच्छासहित मानने में क्या दोष है ?
जैन-ऐसा नियम स्वीकार करने पर सोये हुये पुरुष आदि में भी अभिप्रायरहित वचनों की प्रवृत्ति नहीं होगी।
सोये हुये पुरुष में और गोत्रस्खलन आदि में वचन व्यवहार आदि इच्छा हेतूक नहीं हैं । अर्थात् किसी के दो पुत्र हैं कमल और विमल । सामने खड़े हुये कमल को देखते हुये और बुलाते हुये पिताजी ने कहा कि बेटा बिमल इधर आओ ! उनका अभिप्राय कमल को बुलाने का था किन्तु अकस्मात् मुख से 'विमल' निकल गया इसे हो गोत्र-नाम स्खलन कहते हैं। इस गोत्र स्खलन में इच्छारहित वचन देखे जाते हैं।
उस काल में प्रति संविदिताकार इच्छा होती हुई संभव है पुनः भिन्न वाञ्छाओं के समान उसका स्मरण होना चाहिये ।
____अप्रतिसविदिताकार इच्छा संभव नहीं है जिसका कि पश्चात् में स्मरण न किया जावे किन्तु ऐसा नहीं है अर्थात् सम्यग्ज्ञानाकार ही इच्छा संभव है अन्य नहीं ! पूर्वकाल संभाविनी-जाग्रत अवस्था में होने वाली इच्छा उस काल में वचन आदि की प्रवृत्ति में हेतु है और वह अप्रतिसविदिताकार
1 पर आह । वाच इच्छापूर्वकत्वाभ्युपगमे। 2 अस्ति च तत्र निरभिप्रायप्रवृत्तिः । (ब्या० प्र०) 3 गोत्रं नाम । 4 व्यवहारादि इति पा.। व्यापार । (ब्या० प्र०) 5 सुषुप्तावपि इच्छापुरस्सरत्वेन प्रवृत्तिर्भविष्यतीत्याह । (व्या० प्र०) 6 विकल्पद्वयं मनसिकृत्य ब्रते। भो बौद्ध ! प्रति संविदिताकारेच्छा तदा संभवंती वाकप्रवृत्तिहेतुरिति अषे चेदिच्छांतरवत्तदा स्मर्यंत नास्ति च तथा स्मरणं । (ब्या० प्र०) 7 प्रतिवचन नियतत्वेन (जाग्रहशायां) संविदित आकारो यस्याः सा। 8 स्याद्वादी वदति । तदा सुषुप्त्यादौ सम्यग्ज्ञाताकारा इच्छा उत्पद्यमाना पुनरपि स्मर्यते यथा जाग्रदबस्थायां उत्पद्यमाना वांछा स्मर्यते । एतावता किमायातं सुषुप्त्याद्री वाग्व्यापारो वांछापूर्वको न भवतीत्यर्थः । दि. प्र.। 9 प्रतिसंविदिताकारेच्छाया अभावे अप्रतिसंविदिताकारेच्छा संभवतीत्युक्ते आह । (ब्या० प्र०) 10 किन्तु सम्यग्ज्ञानाकारा एवेच्छा संभवतीति नान्या। 11 परः। 12 पूर्वकालो जाग्रदवस्था ।
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