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________________ अर्हत की वीतरागता पर विचार ] प्रथम परिच्छेद [ ४११ लताचूता देरपि क्वचिदेव दर्शनात् प्रेक्षावतां किमिव निःशंक चेतः स्यात् ? तदेतददृष्ट'संशयैकान्तवादिनां विदग्धमर्कटानामिव स्वलाँगूलभक्षणम * । ननु च 'काष्ठादिसामग्रीजन्योऽग्निर्यादृशो दृष्टो न तादृशो मण्यादिसामग्रीप्रभव इति यज्जातीयो यतो दृष्ट: स तादृशादेव न पुनरन्यादृशादपि, यतो धूमपावकयोर्याप्यव्यापकभावो न निर्णीयते, 10तथा यादृशं चूतत्वं वृक्षत्वेन व्याप्तं तादृशं न लतात्वेन, यतः शिशपात्ववृक्षत्वयोरपि व्याप्यव्यापकभावनियमो दुर्लभ: स्यात्' इति 12कण्चित्सोपि 1 प्रतीतेरपलापकः, 14कार्यस्य तादृशतया प्रतीयमानस्यापि कारणविशेषातिवृत्तिदर्शनात् । से उद्भूत अग्नि वैसी नहीं होती है इसीलिये जिस जाति वाला जिससे होता देखा जाता है वह उस जाति वाले से ही होता है न कि अन्य जाति वाले से, जिससे कि धूम और अग्नि में व्याप्य व्यापक भाव का निर्णय न हो सके अर्थात् धूम और अग्नि में व्याप्य व्यापक भाव का निर्णय होता ही है तथा जिस प्रकार का आम्रत्व वक्षपने से व्याप्त है उस प्रकार का आम्रत्व लता के साथ व्याप्त नहीं है जिससे कि शिशपात्व और वृक्षस्व में भी व्याप्य व्यापक भाव का नियम दुर्लभ होवे अर्थात् दुर्लभ नहीं है। जैन-इस प्रकार से कहने वाले आप सौगत भी प्रत्यक्ष प्रतीति का अपलाप करने वाले हैं क्योंकि कार्य रूप अग्नि उस प्रकार (सामग्रीजन्य रूप) से प्रतीत होने पर भी कारण विशेष (काष्ठादि) का कहीं पर उल्लंघन करती है ऐसा देखा जाता है जैसे कि मणि आदि से अग्नि की उत्पत्ति सिद्ध है। भावार्थ-बौद्ध कहता है कि व्यवहार में हम देखते हैं कि कोई सरागी है परन्तु वचन और काय की क्रियाओं को वीतरागो के समान करता है एवं कोई वोतरागी है वह सरागी के समान प्रवृत्ति कर सकता है अतः “ये ही अहंत हैं" यह निर्णय भी किसमें हो सकेगा? और निर्णय न हो सकने से ही आपके अहंत सर्वज्ञ हैं यह कहना असंभव है। इस पर आचार्यों ने कहा कि सभी के मनोभिप्राय हम और आपको दिखते नहीं हैं तो फिर बाह्य क्रियाओं से उनका निर्णय कैसे होगा? तब बौद्ध कहता है कि आपके वीतराग भगवान के शरीर पाया जाता है अतः वे कुटिल-विचित्र मानसिक विचारधाराओं के हो सकते हैं अतएव वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते तब आचार्य ने कहा कि बुद्ध भगवान् को भी शरीर सहित ही आपने माना है अतः यह दोष उनमें भी सम्भव है। बौद्ध कहता है कि आपके सर्वज्ञ का स्वभाव प्रत्यक्ष गम्य नहीं है अतः अहंत सर्वज्ञ नहीं हो 1 चतत्वादित्यर्थः । । (ब्या० प्र०) 2 न केवलं वृक्षचतादेः। 3 वृक्षो भवितुमर्हति, आम्रत्वात्तथा लतारूपचतत्वात् (उभयथापि वक्तं शक्यते)। 4 देशे । (ब्या० प्र०) 5 न किचिदनुमानं नाम दुर्लभनियमतायां वक्षः शिरापात्वादिनि किमिव निःशंक चेतः स्याद्यतः दुर्लभनियमतापि कुत इत्युक्ते स्वभावेत्यादि हेतुः सोपिः कुत इत्युक्ते लताचूतादिरित्यादिसाधनं । (ब्या० प्र०) 6 अनुमानं न भवेत् यतः । चोद्य। (ब्या० प्र०) 7 ईप । अनुपलब्धवस्तुनि । (ब्या० प्र०) 8 स्वपक्षक्षतिस्याद्यतः । (ब्या० प्र०) 9 परः। 10 स्वभावहेतं मण्डयति सौगतः। 1। अपि तु न स्यादेव । 12 सौगतः। 13 प्रत्यक्षस्य। 14 वन्हेः। 15 काष्ठादिसामग्रीजन्यतया। 16 कारणविशेषः काष्ठादिस्तस्यातिवृत्तिरुल्लङ्घनं तस्या दर्शनात् । 17 उलंघन । (ब्या० प्र०) 18 मण्यादेर्व न्हि दर्शनात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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