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________________ ४१० ] अष्टसहस्री [ कारिका ६ प्रमाणभूतस्य' जगद्धितैषिणः शास्तुस्तायिनः शोभनं गतस्य 'सम्पूर्ण वा गतस्य पुनरनावृत्त्या सुष्टु वा गतस्य विशेषस्येष्टि: ? 'सर्वत्रानाश्वासाविशेषात् । न चैवं 'वादिनः किञ्चिदनुमानं नाम, 10निरभिसन्धीनामपि बहुलं 12कार्यस्वभावानियमोपलम्भात्, 13सति काष्ठादिसामग्रीविशेषे क्वचिदुपलब्धस्य तदभावे प्रायशोनुपलब्धस्य 16मण्यादिकारणकलापेपि संभवात् । "यज्जातीयो यतः संप्रेक्षितस्तज्जातीयात्तादृगिति दुर्लभनियमतायां धूमधूमकेत्वादीनामपि व्याप्यव्यापकभावः कथमिव निर्णायेत ? वृक्षः, शिशपात्वादिति विशेष नाम वाले सुगत की विशेषता का निर्णय भी कैसे होगा ? पुन: कपिल, सुगत, अहंत आदि सभी में अविश्वास समान ही रहेगा क्योंकि सर्वज्ञत्वादि के अतिशय में संवेदनाद्वैत गुण में और सुगत के गुण में निर्णय न होने से समानता ही है । इस प्रकार से कहने वाले बौद्धों के यहाँ अनुमान नाम की कोई वस्तु ही सिद्ध नहीं होगी क्योंकि अभिप्रायरहित (अचेतन अग्नि आदि) में भी बहुधा कार्य हेतु और स्वभाव हेतु का नियम नहीं देखा जाता है । काष्ठादि सामग्री विशेष कारण के होने पर कहीं अग्नि की उपलब्धि होती है और कारण विशेष सामग्री के अभाव में प्राय: अनुपलब्धि है फिर भी मणि-सूर्यकांतमणि आदि कारण कलाप के होने पर अग्नि भी संभव है। जो जिस जाति वाला जिससे उत्पन्न हुआ देखा जाता है उस जाति वाले से ही वह वैसा होता है । इस प्रकार का नियम दुर्लभ होने पर धूमकेतु-अग्नि आदि में भी व्याप्य-व्यापक भाव का निर्णय कैसे होगा? यह वृक्ष है क्योंकि शिशपा है, इसी प्रकार "यह वृक्ष है क्योंकि इसमें आम्रत्व है" उसी प्रकार आम्रलता में भी कहीं-कहीं आम देखे जाते हैं। पुनः बुद्धिमान् का मन किस प्रकार से निःशंक (संदेहरहित) हो सकेगा ? अत: विदग्ध-चतुर मर्कट जैसे अपनी ही पूछ का भक्षण कर लेते हैं उसी प्रकार से आप अदृष्ट संशय एकांतवादी भी अपने पक्ष का स्वयं आप ही खण्डन कर लेते हैं ।* सौगत-काष्ठादि सामग्री से उत्पन्न अग्नि जिस प्रकार को देखी जाती है मणि आदि सामग्री 1 प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे प्रणम्य शास्ते सुगताये तायिने । (इत्युक्तं बौद्धैः)। 2 रक्षकस्य । (ब्या० प्र०) 3 शोभनमविद्यातृष्णाशून्यं ज्ञानसन्तानं संप्राप्तस्य सुशब्दस्य शोभनार्थत्वात् सुरूपकन्यावत् । (ब्या० प्र०) 4 संपूर्ण साक्षाच्चतुरार्यसत्यज्ञानं मंप्राप्तस्य सुशब्दस्य संपूर्णवाचित्वात् सुपूर्णकल शवत् । (ब्या० प्र०) 5 सुष्ठ पुनरनावृत्या पुनरविद्यातृष्णाक्रांतचित्तसंतानावत्तेरभावेन गतस्य सशब्दस्य पुनरनावत्यर्थत्वात सनष्टाक्षरवत । (5 6 सुगतकपिलाहतां मध्ये। 7 सर्वज्ञत्वाद्य तिशय संवेदनाद्वैतगुणे सुगतगुणे चानिर्णयतया विशेषाभावात् । 8 अनुमानात्तद्विशेषेष्टि: स्यादित्युक्ते आह-न चैवमिति। 9 एवं वादिनः सौगतस्य किञ्चिदनुमानं न सम्भवति, निरभिप्रायाणामनुमानानुमेयानां बाहुल्येन कार्यस्वभावरूपयोर्हेत्वोरनिश्चयदर्शनात् । 10 प्रायशः प्रतिपन्नाग्निधूमादीनामपि। (ब्या० प्र०) 11 अभिप्रायरहितानामचेतनादीनामग्न्यादीनामित्यर्थः। 12 कार्यानुमानस्वभावानुमान । (ब्या० प्र०) 1: दुर्लभनियमता कुत इत्युक्ते तत्र समर्थनं । (ब्या० प्र०) 14 कारणभूते । 15 अग्नेः । 16 मणि: सूर्यकान्तः । 17 यत्प्रकारः । (ब्या० प्र०) 18 अग्ने: । (ब्या० प्र०) 19 इत्यनुमानं च न भवेद्यतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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