SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांख्य द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३८१ कपिलादय इत्यनुमानान्न्यायागमाविरुद्धभाषिण एव भगवतोहतो निर्दोषत्वमवसीयते । न चात्र न्यायागमविरुद्धभाषित्वं कपिलादीनामसिद्धं, तदभिमतस्य मोक्षसंसारतत्कारणतत्त्वस्य प्रसिद्धन प्रमाणेन बाधनात् । [ सांख्याभिमतमोक्षस्य निराकरणं ] तत्र कपिलस्य तावत्स्वरूपे चैतन्यमात्रेवस्थानमात्मनो मोक्ष इत्यभिमतं तत्प्रमाणेन बाध्यते, चैतन्यविशेषेनन्तज्ञानादौ स्वरूपेवस्थानस्य मोक्षत्वसाधनात् । न ह्यनन्तज्ञानादिकमात्मनोऽस्वरूपं, 'सर्वज्ञत्वादिविरोधात् । प्रधानस्य सर्वज्ञत्वादि स्वरूपं, नात्मन इति चेन्न, तस्या'चेतनत्वादाकाशवत् । ज्ञानादेरप्य चेतनत्वादचेतनप्रधानस्वभावत्वं युक्तमेवेति उसी प्रकार से न्याय आगम से विरुद्ध बोलने वाले अन्य कपिल आदि हैं।" इस अनुमान से न्यायागमयुक्ति और आगम से अविरुद्ध भाषी होने से ही भगवान् अहंत निर्दोष हैं यह निश्चित होता है। यहाँ कपिलादि न्याय-आगम से विरुद्ध भाषी हैं यह बात असिद्ध भी नहीं है क्योंकि उनके द्वारा अभिमत मोक्ष, संसार और उन-उनके कारण तत्त्वों में प्रसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधा आती है। [ सांख्य द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन 1 सांख्य-अपने चैतन्य मात्र स्वरूप में आत्मा का अदस्थान हो जाना ही मोक्ष है अर्थात् प्रकृति और पुरुष का भेद विज्ञान होने से प्रकृति की निवृत्ति हो जाने पर पुरुष का सुषुप्त पुरुषवत् अव्यक्त चैतन्य उपयोग रूप से स्वरूप में अवस्थान हो जाना ही मोक्ष है। जैन-आपका यह अभिमत भी प्रमाण से बाधित है क्योंकि हम जैनों के यहाँ चैतन्य विशेष अनंतज्ञान आदि रूप स्वरूप में अवस्थान होने को मोक्ष सिद्ध किया है। एवं अनंतज्ञान आदि आत्मा के स्वरूप नहीं हैं ऐसा नहीं कह सकते, अन्यथा सर्वज्ञत्व आदि का विरोध हो जावेगा। सांख्य–सर्वज्ञत्व आदि प्रधान का स्वरूप है आत्मा का नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कहना क्योंकि प्रधान अचेतन है आकाश के समान । सांख्य-ज्ञानादि भी अचेतन हैं अतः उन्हें अचेतन रूप प्रधान का स्वभाव मानना युक्त ही है। जैन यदि ऐसा आपका कथन है तो यह बताइये कि आप किस प्रमाण से ज्ञानादि को 1 विरुद्धत्वं इति पा.-दि. प्र.। 2 भावस्वरूपे इति पा.-दि. प्र.। 3 प्रकृतिपुरुषयोर्भदविज्ञानात् प्रकृतिनिवृत्ती पुरुषस्य सुषुप्तपुरुषवदव्यक्तचैतन्योपयोगेन स्वरूपमात्रावस्थानलक्षणो मोक्ष इति सांख्याभिमतम् । 4 जैनः । 5 अन्यथा । (ब्या० प्र०) 6 अकर्ता निर्गुणो शुद्धो नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अमूर्तश्चेतको भोक्ता ह्यात्मा कपिलशासने ॥ (ब्या० प्र०) 7 तेषां ज्ञानादीनां अचेतनत्वं कस्मादिति स्याद्वादी पृच्छति । पर आह । ज्ञानादयः पक्ष: अचेतना भवंतीति साध्यो धर्म: उत्पत्तिमत्त्वात् । ये उत्पत्तिमंतस्ते अचेतना यथा घटादयः। उत्पत्तिमंतश्चेमे तस्मादचेतना भवंति । आह जैन: उत्पत्तिमत्वादिति हेतोरनुभवेन कृत्वा व्यभिचारो घटते। कस्मात् ? यत: अनुभवस्य चेतनत्वेऽप्यूत्पत्तिमत्त्वं दृश्यते-दि. प्र.। 8 सांख्यः। 9 दर्शनादि । (ब्या०प्र०) Jain Education International Jain Education International : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy