________________
३७६ ]
अष्टसहस्र
[ कारिका ६
इस पर आचार्य ने अच्छी तरह समझाया है कि भाई ! गुड़, महुआ, आटा आदि जड़ रूप अचेतन पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं और इनमें मदिरा बनने के पहले भी शक्ति रूप से मादकता विद्यमान है तभी सम्मिश्रण होने से मादकता आ जाती है अन्यथा यदि इनमें शक्ति ही नहीं होती तो मिलने पर भी वह कहाँ से प्रकट होती ।
जैनाचार्य तो दूध में घी को शक्ति रूप से एवं आत्मा में परमात्मा को शक्ति रूप से मानते हैं | देखो ! जन्म लेते ही बालक में बैरिस्टर, डाक्टर, इंजीनियर, मास्टर आदि की शक्ति विद्यमान है इसीलिये बड़ा होने पर निमित्त मिलने से वैसा बन जाता है । अतः आटा, महुआ आदि मदिरा से भिन्न तत्त्व नहीं हैं वे सभी अचेतन रूप ही हैं, किन्तु आत्मा सर्वथा ही इन भूत चतुष्टयों से विलक्षण ज्ञान दर्शन स्वरूप चेतन है । आश्चर्य इस बात का है कि यह चार्वाक भूत चतुष्टय में चारों को परस्पर में भिन्न-भिन्न मानता है और आत्मा एवं भूत चतुष्टय को एक सजातीय द्रव्य मानता है जबकि ये चारों ही भूतचतुष्टय पुद्गल की अपेक्षा सजातीय एक द्रव्य है एवं आत्मा इनसे भिन्न विलक्षण द्रव्य है । यह आत्मा अनादि अनंत है और मरण के बाद आगे गर्भावस्था में आने लिए उपादान भूत है । जैसे कि जवानी अवस्था के चैतन्य में बाल्यावस्था का चैतन्य उपादान रूप है। ऐसा समझना चाहिये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.