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चार्वाक मत निरास ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३७५
ष्ठानात् । न चैवं चैतन्यं भूत विवर्त्तः, 'क्षित्यादितत्त्वस्यापि तद्विवर्त्तन्वप्रसङ्गात्, अनाद्यनन्तत्वाविशेषात् । ततो भिन्नलक्षणत्वं तत्त्वान्तरत्वेन व्याप्तं भूतचैतन्ययोस्तत्त्वान्तरत्वं साधयत्येव । इति चैतन्यपरिणामोपादान एवाद्यचैतन्यपरिणामः प्राणिनामन्त्यचैतन्योपादेयश्च' जन्मान्तराद्यचैतन्यपरिणामः सिद्धः ।
क्योंकि शरीराकार से परिणत भूत विशेषावस्था से पहले भी पृथ्वी, जल आदि भूतों में चैतन्य शक्ति का सद्भाव है। अन्यथा शरीराकार परिणत अवस्था में भी चैतन्य की उत्पत्ति का विरोध हो जावेगा।
जैन-इस प्रकार नहीं कहना चाहिये क्योंकि चैतन्य के अनादि अनंतपना सिद्ध है और सभी आत्मवादियों को यह बात इष्ट है और इस प्रकार चैतन्यतत्व, भूतचतुष्टय की पर्याय नहीं है अन्यथा पृथ्वी आदि तत्त्व को भी चैतन्य की पर्याय का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि दोनों में ही अनादि अनंतपना समान है । इसीलिये "भिन्न लक्षण" हेतु भिन्न तत्त्व से व्याप्त है और वह भूतचतुष्य और चैतन्य को भिन्न-भिन्न तत्त्व सिद्ध ही करता है । इस प्रकार प्राणियों का आद्य चैतन्य परिणाम ही पूर्व चैतन्य परिणाम (जन्म) के उपादान पूर्वक है और अन्त्य चैतन्य उपादेय है तथा अगले जन्म में जन्म के लिये मरण के बाद का चैतन्य ही उपादान रूप है उसे ही आद्य चैतन्य परिणाम कहते हैं यह बात सिद्ध हुई।
भावार्थ-चार्वाक चैतन्य और भूतचतुष्टय को एक तत्त्व सिद्ध करने में लगा हुआ है। उसका कहना है कि भले ही जीव और भूत का लक्षण भिन्न-भिन्न हो फिर भी दोनों एक तत्त्व हैं। जैसे गुड़, महुआ, आटा आदि मदिरा के लिये साधनभूत पदार्थ हैं। इनमें मादक शक्ति नहीं है और सभी के सम्मिश्रण से इन्हीं का मदिरा रूप परिणमन होकर इनमें मादकता आ जाती है और पीने वालों को वह उन्मत्त बना देती है। पृथक्-पृथक् गुड़, महुआ या आटे की रोटी खाने वालों में ऐसा विकार या नशा नहीं होता है । अतः ये महुआ आदि पदार्थों का लक्षण भिन्न है और मदिरा का लक्षण भिन्न है फिर भी दोनों एक तत्त्व हैं वैसे ही यद्यपि आत्मा का लक्षण जानना देखना है और भूतचतुष्टय का लक्षण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रूप है फिर भी लक्षण भेद से ये दोनों पृथक् न होकर एक ही हैं।
1 अन्यथा । (ब्या० प्र०) 2 नन्वनादित्वाविशेषेऽपि चैतन्यं भूतविवर्तः शक्तित्वात ननु क्षित्यादिस्तद्विवर्तः शक्तिमत्त्वात् । मदजननविवों न तु मदिरादिस्तद्विवर्तः तत: क्षित्यादितत्त्वस्य तत्प्रसंगो न स्यादिति नाशंकनीयं । अभिप्रायविशेषात् । अयं ह्यभिप्रायविशेषः प्राप्रपंचेन निरारेकं समषितेन स्वसंवेदनाख्यभिन्नलक्षणत्वेन तत्त्वांतरत्वं चैतन्यस्य व्यवस्थापितं । तथापि तस्य क्षित्यादिविवर्तत्वे क्षित्यादेरपि चैतन्यविवर्तत्वप्रसंग: स्यात् । न चैवं मदजननशक्तेर्मदिरादिविवर्तत्वे मदिरादेस्तद्विवर्तत्वप्रसंगःस्यात्तस्याभिन्नलक्षणत्वेन तत्त्वांतरत्वासिद्धेरिति-दि. प्र.। 3 उभयत्रापि । 4 पूर्वचैतन्यमुपादानम् । 5 बसः । (ब्या० प्र०) 6 ता । कार्यभूतः । (ब्या० प्र०) 7 अन्त्यचंतन्यस्योपादेयो भविष्यजन्माद्यचैतन्यपरिणामः। 8 एवं प्राक्तनचैतन्यस्योत्तरचैतन्यं प्रत्युपादानभावेऽपि कथं संसार: इत्याह । (ब्या० प्र०)
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