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________________ ज्ञान अस्वसंविदित नहीं है । प्रथम परिच्छेद [ ३६७ [ ज्ञानमस्वसंविदितमस्तीति मान्यतायां जैनाचार्याः समादधते । ] ज्ञानस्य स्वसंवेदनलक्षणत्वमसिद्धमिति चेन्न, बहिरर्थपरिच्छेदकत्वान्यथानुपपत्त्या' तस्य स्वसंवेदनलक्षणत्वसिद्धेः । यो ह्यस्वसंवेदनलक्षणः स न बहिरर्थस्य परिच्छेदको दृष्टो, यथा घटादिरिति विपक्षे बाधकप्रमाणसद्भावात्सिद्धा हेतोरन्यथानुपपत्तिः । प्रदीपादिनानेकान्त' इति चेन्न, तस्य 'जडत्वेन बहिरर्थपरिच्छेदकत्वासम्भवात्, 'बहिरर्थपरिच्छेदकज्ञानोत्पत्तिकारणत्वात्तु प्रदीपादेर्बहिश्चक्षुरादेरिव परिच्छेदकत्वोपचारात् । न चोपचरितेनार्थपरिच्छेदकेन प्रदीपादिना मुख्यस्यार्थपरिच्छेदकत्वस्य हेतोर्व्यभिचारचोदनं विचारचतुरचेतसां कर्तुमुचितम्, 'अतिप्रसङ्गात् । [ ज्ञान अस्वसंविदित है इस मान्यता पर जैनाचार्य समाधान करते हैं ] शंका-ज्ञान का स्वसंवेदन लक्षण असिद्ध है। समाधान-नहीं । बाह्यपदार्थों को जानने की अन्यथानुपपत्ति होने से ज्ञान स्वसंवेदन लक्षण वाला सिद्ध है क्योंकि "जो अस्वसंवेदन लक्षण वाला है वह बाह्यपदार्थों का परिच्छेदक (जानने वाला) नहीं है । जैसे घटादि ।" इस प्रकार विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव होने से हेतु को अन्यथानुपपत्ति सिद्ध ही है। शंका-प्रदीप आदि बाह्य पदार्थों के प्रकाशक भी हैं और अस्वसंविदित भी हैं। इसलिये प्रदीपादि से आपका हेतु अनैकांतिक है। समाधान नहीं। प्रदीपादि के जड़पना (अचेतनपना) होने से बाह्य पदार्थों का जानना असंभव है, किन्तु बाह्यपदार्थों का परिच्छेदक जो ज्ञान है उस ज्ञान की उत्पत्ति में कारण होने से प्रदीपादि को बाह्य चक्ष आदि इन्द्रियों के समान ज्ञान कराने वाले हैं यह उपचार से ही माना है और "उपचरित रूप से अर्थ का ज्ञान कराने वाले प्रदीपादि से मुख्य रूप से पदार्थों का परिच्छेदकत्व हेतु व्यभिचारी है।" विचारशील व्यक्तियों को ऐसा व्यभिचार दोष देना उचित नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा। अर्थात् अग्नि दहन शक्ति से युक्त है क्योंकि वह अग्नि रूप है । जो दहन शक्ति से युक्त नहीं होता है वह अग्नि नहीं होता है जैसे जलादि। बालक में किये गये अग्नि के उपचार से इस 1 ज्ञानं स्वसंवेदनलक्षणं, बहिरर्थपरिच्छेदकत्वान्यथानुपपत्तेः। 2 रर्थपरिच्छेदको इति पा. (ब्या० प्र०) 3 स हि बहिरर्थप्रकाशकश्चास्वसंविदितश्च । 4 अज्ञानरूपत्वेन। 5 तर्हि बहिरर्थपरिच्छेदकः प्रदीपादेरिति व्यवहारः कथमित्युक्ते आह । (ब्या० प्र०) 6 यथा बहिश्चक्षुरादींद्रियस्योपचारात् प्रकाशकत्वं तथाप्रदीपादेरिव-दि. प्र. । 7 हेतोर्व्यभिचारोत्पादनं क्रियते यदि तदातिप्रसंगो भवति, मुख्यमुपचरितं । उपचरितं मुख्यं भवति-दि. प्र. । कोऽग्नित्वात व्यतिरेके जलवत इत्यत्रोपचरितेन माणवकाग्निनाव्यभिचारप्रसंगात । माणवके उपचरितस्याग्ने: दाहादिकार्याकारित्वे मुख्यस्याग्नेः कार्याकारित्वप्रसंगः । (ब्या० प्र.) 8 अग्निदहनशक्तियुक्तो, अग्नित्वात । व्यतिरेके जलादि । अत्रोपचरितेन माणवकाग्निना व्यभिचारप्रसङ्गात । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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