SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चार्वाकमत निरास ] प्रथम परिच्छेद [ ३६५ आदि कर्मों को बाँधकर उपादान रूप से यहाँ उत्पन्न हुई है। आत्मा और पुद्गल द्रव्य रूप भूतचतुष्टय सर्वथा भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। वन में जो अग्नि स्वयं लगती है उसमें भी बांसों का परस्पर घर्षण आदि निमित्त है, किन्तु उपादानभूत आत्मा एकेन्द्रियजाति अग्निकायिक स्थावर आदि नाम कर्म को लेकर अग्निकाय में जन्मी है। माता-पिता के रजोवीर्य के सम्मिश्रण से जो जन्म होता है उसे गर्भ जन्म कहते हैं। उपपादशय्या से जो जन्म होता है उसे औपपादिक जन्म कहते हैं। तथा यत्र-तत्र से अपने योग्य पुद्गल परमाणुओं के एकत्रित हो जाने पर शरीर की रचना बनकर जो जन्म होता है उसे सम्मूर्छन जन्म कहते हैं । एकेन्द्रिय से असंज्ञीपंचेन्द्रिय तक सभी प्राणियों का जन्म सम्मूर्छन जन्म ही है पंचेंद्रिय तिर्यंचों में कुछ प्राणी सम्मर्छन जन्म वाले हैं जैसे मेंढक मत्स्य आदि। शेष सभी गर्भज हैं जैसे गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा आदि । मनुष्यों में सभी मनुष्य गर्भज होते हैं एवं जो सम्मूर्छन मनुष्य होते हैं वे लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं तथा वे हमको और आपको दीखते नहीं हैं। देव और नारकियों का जन्म उपपाद जन्म कहलाता है। इन तीनों प्रकार के जन्म को धारण करने वाली आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है कर्मों के निमित्त से जन्म मरण रूप संसार में संसरण करना पड़ता है। कर्मों से मुक्त होने के बाद इस आत्मा में पूर्ण आनंद, पूर्णज्ञान, अनंतशक्ति आदि अनंत गुण प्रगट होते हैं। जब तक इस जीव को सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं होता है तभी तक यह जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पंचपरिवर्तन में परिभ्रमण करता रहता है। सम्यग्दर्शन के प्रगट होने के बाद ज्ञान और चारित्र की वृद्धि एवं पूर्णता से यह जीव पूर्ण शुद्ध हो जाता है अतः आत्मा और भूतचतुष्टय भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं ऐसा समझना चाहिये और पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु ये भूतचतुष्टय पुद्गल की पर्याय होने से कथंचित् द्रव्यदृष्टि से एक ही तत्त्व हैं भिन्न-भिन्न नहीं हैं। इसलिये विपरीतमान्यता को छोड़कर आस्तिकवादी बनना ही उचित है। चार्वाक मत के खंडन का सारांश चार्वाक कहता है कि पुरुष के जन्मांतर से पहले आर मरण के पश्चात् भवांतर नाम की कोई वस्तु नहीं है क्योंकि गर्भ से लेकर मरण पर्यंत ही चैतन्य पाया जाता है अतः आकाशपुष्प के समान संसार तत्त्व सिद्ध नहीं है तथैव मोक्ष तत्त्व भी सिद्ध नहीं है। __ भूतचतुऽटय से ही चैतन्य उपन्न होता है । अचेतन गोमय आदि से बिच्छू आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं । चैतन्य उपादान के बिना भी चैतन्य का होना सिद्ध ही है जैसे वन की अग्नि अरणि आदि के निर्मथन से उत्पन्न हो जाती है पुनः आगे-आगे की अग्नि पूर्व अग्नि के उपादान पूर्वक होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy