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________________ ३६४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६ चैतन्यस्य तदुद्भिन्नलक्षणत्वसिद्धेः । न हि भूतानि स्वसंवेदनलक्षणानि, अस्मदाद्यनेक' प्रतिपत्तृप्रत्यक्षत्वात्' । 'यत्पुनः स्वसंवेदनलक्षणं तन्न तथा प्रतीतं यथा ज्ञानम्' । ' तथा 'च भूतानि, तस्मान्न स्वसंवेदनलक्षणानि । अनेकयोगिप्रत्यक्षेण' सुखादिसंवेदनेन व्यभिचारी हेतु - रिति न शङ्कनीयम्, अस्मदादिग्रहणात् " | होते हैं और जो स्वसंवेदन लक्षण वाला है वह उस प्रकार हम लोगों के प्रत्यक्ष में नहीं आता है जैसे हम लोगों का अप्रत्यक्ष ज्ञान और उसी प्रकार भूतचतुष्टय प्रत्यक्ष है इसीलिए स्वसंवेदन लक्षण वाले नहीं हैं ।" शंका- सुखादिसंवेदन अस्वसंवेदन लक्षण वाले होने पर भी अनेक योगी जनों के प्रत्यक्ष हैं इसलिए सुखादिसंवेदन से यह हेतु व्यभिचारी है । समाधान - ऐसी शंका आपको नहीं करनी चाहिए क्योंकि सुखादि संवेदन-सुखादि का ज्ञान हम लोगों के प्रत्यक्ष है । भावार्थ-चार्वाक का कहना है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन भूतचतुष्टयों से शरीर का निर्माण होता है उसी में आत्मा बन जाती है शरीर, मन, इन्द्रिय, ज्ञान और आत्मा सब भूतचतुष्टय से निर्मित है । चैतन्य नाम का कोई भिन्न तत्त्व या द्रव्य नहीं है जो कि अनादि अनन्त काल तक स्थिर रहता हो । मतलब शरीर के जन्म के पहले और मरने के बाद आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है । इस बात को सिद्ध करने के लिए चार्वाक ने बहुत ही युक्ति प्रत्युक्तियों के द्वारा अपना पक्ष पुष्ट किया है। उसका कहना है कि गोमय आदि से बिच्छू, कीचड़ आदि से कीड़े मकोड़े, केंचुयें आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं । वन में बाँसों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है उसमें जीवात्मा कहाँ से आया ? मेघों की गड़गड़ाहट, बिजली आदि का उपादान कारण क्या है ? इत्यादि में आत्मा रूप उपादान के बिना ही आत्मा उत्पन्न हो रही है अतः आत्मा भूतों से बनती है एवं भूतचतुष्टय और आत्मा एक तत्त्व है किन्तु भूतचतुष्टय परस्पर में भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं । इन सभी बातों को सुनकर जैनाचार्यों ने बहुत ही अच्छा और वास्तविक समाधान किया है । उन्होंने बतलाया है कि बिच्छू, कीट, मेंढक, केंचुयें आदि प्राणियों का शरीर यद्यपि गोमय, कीचड़ आदि भूतचतुष्टय से बना हुआ है फिर भी उनकी आत्मा अन्यत्र कहीं से तिर्यंच गति और तिर्यंच आयु 1 अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् । इति वा पाठ: । एकप्रतिपतृप्रत्यक्षेण स्वसंवेदनेन व्यभिचारनिवृत्यर्थ मनेकशब्दोपादानं । ( ब्या० प्र० ) 2 घटादिवत् इति अधिकः पाठः दि. प्र. 1 3 अस्मदादिप्रत्यक्षाणि च तानि भूतानि तस्मान्न स्वसंवेदनलक्षणानि इति वा पाठ: - दि. प्र. 1 4 अस्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षं न प्रतीतम् । 5 अस्मदाघप्रत्यक्षम् । 6 अस्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षाणि सन्ति । 7 तथा च भूतानि च तानीति वा पाठ: दि. प्र. 1 8 बस: । ( ब्या० प्र० ) 9 सुखादिसंवेदनस्यास्वसंवेदनलक्षणत्वेप्यने कयोगिप्रत्यक्षत्वात् । 10 अस्मदादिभिरपि प्रत्यक्षत्वादित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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