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________________ ३५२ ] [ कारिका ६ भिषग्वरः ' । युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् च भगवान् मुक्ति संसारतत्कारणेषु, तस्मान्निर्दोष इति निश्चयः । युक्तिशास्त्राभ्यामविरोधः कुतो 'मद्वाच: सिद्धोऽनवयवेनेति चेद्यस्मादिष्टं मोक्षादिकं ते प्रसिद्धेन प्रमाणेन न बाध्यते । तथा हि । यत्र 'यस्याभिमतं ' तत्त्वं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । यथा रोगस्वास्थ्यतत्कारणतत्त्वे' भिषग्वरः । न बाध्यते च प्रमाणेन भगवतोभिमतं मोक्षसंसारतत्कारणतत्त्वम् । तस्मात्तत्र त्वं युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । इति विषयस्य युक्तिशास्त्राविरोधित्वसिद्धेविषयिण्या भगवद्वाचो युक्ति अष्टसहस्री सम्पूर्णतया युक्ति आगम से अविरोधी किस प्रकार से सिद्ध है ? इस प्रकार से भगवान् के प्रश्न करने पर ही मानों समंतभद्र आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! आपके मोक्षादिक तत्त्व प्रसिद्ध प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित नहीं होते हैं । तथाहि — "जहाँ पर जिस पुरुष का अभीष्ट तत्त्व प्रमाण से बाधित नहीं होता है वह वहाँ पर युक्ति और आगम से अविरोधी वचन वाला है जैसे रोग और स्वास्थ्य तथा उनके कारणों में उत्तम वैद्य । भगवान् ' के द्वारा अभिमत मोक्ष, संसार और उन-उनके कारण कारणभूत तत्त्व प्रमाण से बाधित नहीं होते हैं । इसीलिये उस-उस विषय में भगवान् आप ही युक्ति और आगम से अविरोधी वचन वाले हैं ।” इस प्रकार मोक्ष, संसार एवं इन दोनों के कारणभूत इस विषय को युक्ति-शास्त्र से अविरोधी पना सिद्ध होने से विषयी भगवान् के वचनों को भी युक्ति और शास्त्र से अविरोधीपना सिद्ध हो जाता है । भावार्थ - श्री स्वामी समंतभद्राचार्य वर्य ने देवागम स्तोत्र में "देवागमनभोयान" इत्यादि कारिका के द्वारा बहिरंग विभूतिमान् हेतु से भगवान् को महान् नहीं माना है । 'अध्यात्मं बहिरप्येष इत्यादि द्वितीय कारिका के द्वारा अंतरंग महोदय से भी भगवान् को नमस्कार नहीं किया है तथा 'तीर्थकृत्समयानां' इत्यादि तृतीय कारिका से सभी के आम्नाय में परस्पर विरोध दिखाकर पुनः धीरे से ऐसा कह दिया है कि 'कश्चिदेव भवेद्गुरुः' कोई न कोई एक भगवान् अवश्य ही होना चाहिये । इसके पश्चात् चतुर्थ कारिका में इस बात को बताया है कि दोष और आवरण से ही प्राणी संसारी कहलाते हैं इनका किसी न किसी में पूर्णतया अभाव हो सकता है क्योंकि संसारी प्राणियों में दोष और आवरण के हानि की तरतमता देखी जाती है । पुनः आगे पांचवीं कारिका में यह स्पष्ट कर देते हैं कि 'सूक्ष्मादि पदार्थ' किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं और जिसके प्रत्यक्ष हैं वही सर्वज्ञ है । 1 वैद्यशास्त्रयुक्तघविरोधिदाग् निर्दोषः । 2 मुक्तिश्च संसारश्च तत्कारणे च तेषु । 3 मम वर्द्धमानस्य । 4 सामस्त्येन । 5 यस्य पुरुषस्य स इति सम्बन्धः । 6 मोक्षसंसारतत्कारणेषु त्वं युक्तिशास्त्राविरोधिवान् भवितुमर्हसि तत्र त्वदभिमतस्य तत्त्वस्य स्वरूपस्य प्रमाणेनावाध्यमानत्वात् इति प्रतिज्ञाहेतू दृष्टव्यो । दि. प्र. 7 रोगश्च स्वारथ्यं च तत्कारणे च तान्येव तत्त्वं तत्र । दि. प्र । 9 रोगश्च स्वास्थ्यं च तत्कारणानि च तान्येव तत्त्वं तस्मिन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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