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दोष-आवरण के प्रभाव पूर्वक सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३५१ नन्वस्तु नामवं कस्यचित्कर्मभूभृद्भदित्वमिव विश्वतत्त्वसाक्षात्कारित्वं, 'प्रमाणसद्भावात् । स तु परमात्माईन्नेवेति कथं निश्चयो यतोहमेव महानभिवन्द्यो भवतामिति व्यवसिता भ्यनुज्ञानपुरस्सरं भगवतो 'विशेषसर्वज्ञत्वपर्यनुयोगे सतीवाचार्याः प्राहुः ।
स त्वमेवासि 'निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक ।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ दोषास्तावदज्ञानरागद्वेषादय उक्ताः । निष्क्रान्तो दोषेभ्यो निर्दोषः । प्रमाणबलासिद्धः सर्वज्ञो वीतरागश्च सामान्यतो यः स त्वमेवाईन्, युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वात् । यो यत्र16 युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् स तत्र निर्दोषो दृष्टो, यथा क्वचिद्वयाध्युपशमे
पाया जाता है । पुनरपि वह परमात्मा अर्हत ही हैं यह निश्चय कैसे हो सकता है कि जिससे मैं ही आपके लिये महान् नमस्कार करने योग्य होऊ । इस प्रकार निश्चित स्वीकृति पूर्वक भगवान् के विशेष सर्वज्ञत्व के प्रश्न करने पर ही मानो आचार्य समंतभद्र स्वामी कहते हैं
कारिकार्थ-हे भगवन् ! दोष और आवरण से रहित निर्दोष सूक्ष्मादि पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले एवं युक्ति-शास्त्र (तर्क व आगम) से अविरोधी वचन को बोलने वाले वह अहंत परमात्मा आप ही हैं क्योंकि आपका इष्ट (मत) विरोध रहित है उसमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है ॥६॥
- अज्ञान, राग, द्वेष आदि तो दोष कहे गये हैं और जो दोषों से रहित है वे निर्दोष हैं । पूर्वोक्त चौथी एवं पांचवीं कारिका में कहे गये अनुमान प्रमाण के बल से सामान्यतया जो सर्वज्ञ और वीतराग सिद्ध हुए हैं । हे भगवन् ! वे आप ही हैं क्योंकि आपके वचन, युक्ति (तर्क) और शास्त्र (आगम) से अविरोधी हैं, जो जहाँ पर युक्ति-शास्त्र से अविरोधी वचन वाले हैं वे वहाँ पर निर्दोष देखे गये हैं जैसे किसी व्याधि को दूर करने में उत्तम वैद्य । मुक्ति और संसार तथा इन दोनों कारणों में भगवान् युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन वाले हैं इसीलिये वे निर्दोष हैं। इस प्रकार से हमारा निश्चय है। मेरे वचन
1 प्रमाणं सुनिश्चितासंभवबाधकत्वलक्षणम् । 2 व्यवस्थितेति पाठान्तरम् । 3 व्यवसितं निश्चितमभ्यनुज्ञानमभ्युपगमस्तत्पुरस्सरमिति क्रियाविशेषणम् । 4 निश्चित । ता अभ्युपगम । (ब्या० प्र०) 5 अर्हन्नेव सर्वज्ञ इति विशेषस्य । (ब्या० प्र०) 6 प्रश्ने । 7 दोषेभ्योऽज्ञानरागद्वेषादिभ्यो निष्क्रांतः। दि. प्र.। 8 युक्तिस्तर्कः। शास्त्रमागमः । हेतुभितं विशेषणमिदम्। 9 यत्: । (ब्या० प्र०) 10 यस्मात् । (ब्या० प्र०) 11 तत्त्वं । (ब्या० प्र०) 13 भगवान् पक्षो निर्दोषो भवतीति साध्यो धर्मो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वात् । इत्याद्यनुमानमेकं । भगवान् पक्षः युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् भवतीति साध्यो धर्म: भगवतोभिमततत्त्वस्य प्रमाणेनाबाध्यमानत्वात् इति द्वितीयं । दि. प्र. । 14 अनन्तरोक्तकारिकाद्वयोक्तानुमानद्वयबलात् । 15 तत्वे । 16 य: सामान्यतः सिद्धः स त्वमेव मोक्षसंसारतत्कारणेषु निर्दोषो भवितुमर्हति तत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वात् इति प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगो दृष्टव्यः । दि. प्र. ।
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