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________________ अष्टसहस्री ३४२ ] [ कारिका ५तदापि दृष्टातिक्रम' एव, मनसो युगपदनेकत्र विषये प्रवृत्त्यदर्शनात् । तत्र 'दृष्टातिक्रमेष्टौ वा स्वयमात्मैव समाधिविशेषोत्थधर्मविशेषवशादन्तःकरणनिरपेक्षः साक्षात् सूक्ष्माद्यर्थान् पश्यतु किमिन्द्रियेणेवान्तःकरणेन ? तथा च नेन्द्रियज्ञानेन" कस्यचित्प्रत्यक्षाः सूक्ष्माद्यर्थाः संभाव्यन्ते । अतीन्द्रियप्रत्यक्षेण कस्यचित्प्रत्यक्षाः साध्यन्ते इति चेदप्रसिद्धविशेषण:11 पक्षः, क्वचिदतीन्द्रियज्ञानप्रत्यक्षत्वस्याप्रसिद्धेः सांख्यं प्रति विनाशी शब्द इत्यादिवत्। साध्यशून्यश्च दृष्टान्तः स्यादग्न्यादेरतीन्द्रियप्रत्यक्षविषयत्वाभावात् । [ मानस प्रत्यक्ष से भी सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है। ] पुन: यदि आप नैयायिक एक अन्तःकरण (मन) को ही योगज धर्म से अनुगृहीत-स्वीकार करके उसके द्वारा युगपत् संपूर्ण पदार्थों का विषय करना मानोगे तो भी आपके यहाँ प्रत्यक्ष का उल्लंघन हो ही जावेगा, क्योंकि मन की एक साथ अनेक विषयों में प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है "युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंग" ऐसा आपका ही वचन है। नैयायिक-इस विषय में प्रत्यक्ष से विरोध होता है तो हो जावे हमें कोई बाधा नहीं है क्योंकि समाधि विशेष से उत्पन्न धर्म का चमत्कार ही ऐसा है कि जिससे अनुगृहीत मन एक साथ ही संपूर्ण परमाणु आदि पदार्थों को विषय कर लेता है। जैन-यदि आप ऐसा मान लेते हैं तो भाई ! स्वयं आत्मा ही समाधि विशेष (शुक्लध्यान) से उत्पन्न हुये धर्म विशेष (केवलज्ञान) के बल से अंतःकरण से निरक्षेप होता हुआ ही साक्षात् संपूर्ण सूक्ष्मादि पदार्थों को जान लेता है ऐसा भी मान लीजिये क्या बाधा है ? पुनः इन्द्रियों के द्वारा जानता है अथवा मन के द्वारा जानता है इत्यादि कल्पनाओं का क्या प्रयोजन है ? अतः किसी को भी इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सूक्ष्मादि पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हो सकते हैं। यह बात सिद्ध हो जाती है। मीमांसक-आप नैयायिक से हमने पहले यह प्रश्न किया था कि सूक्ष्मादि पदार्थ इन्द्रिय ज्ञान से किसी के प्रत्यक्ष हैं या अतींद्रियज्ञान-मानसप्रत्यक्षज्ञान से ? उसमें से यदि आप दूसरा विकल्प स्वीकार करें कि सूक्ष्मादि पदार्थ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा किसी के प्रत्यक्ष हैं तब तो आपका पक्ष अप्रसिद्ध 1 प्रत्यक्षोल्लङ्घनमेव । 2 युगपत्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लक्षणं (ब्या० प्र०)। 3 युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति वचनात् । 4 प्रत्यक्षविरोधाङ्गीकारे। 5 ता। प्रत्यक्षातिक्रमाभिमनने दष्टातिक्रमेष्टातिक्रमेष्टी इति पा. दि. प्र। 6 इंद्रियांतःकरणात् । (ब्या० प्र०) 7 द्वितीयविकल्पः । (ब्या० प्र०) 8 सूक्ष्माद्यर्थाः। 9 योगो वदति हे स्यावादिन् ।ते सूक्ष्माद्यर्था अतींद्रियज्ञानेन कस्यचित् पुंसः प्रत्यक्षा मया साध्यंत इति कि तवाभिप्रायः । दि.प्र. । 10 मीमांसकः। 11 सूक्ष्माद्यर्था अतीन्द्रियप्रत्यक्षेणेति अप्रसिद्धं विशेषणं यस्य सः। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षेतीदं विशेषणमप्रसिद्धमित्यर्थः। 12 दृष्टांते। 13 आविर्भावतिरोभावमात्रं न तु नाशित्वं तन्मते शब्दत्वे । (ब्या० प्र०) 14 सांख्यमते आविर्भावतिरोभावी स्तो न तु किञ्चिद्विनाशि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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