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प्रथम परिच्छेद
सर्वज्ञसिद्धि ] ध्यत्वात् । तदुक्त,
"धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते। सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥१॥"
कहा भी है
श्लोकार्थ-मुक्त आत्मा में केवल धर्म-अधर्म को जानने का निषेध किया जाता है शेष संपूर्ण पदार्थों को मुक्तजीव जानते हैं इसमें हमारा विरोध नहीं है ।
भावार्थ-मीमांसकों का कहना है कि मुक्त जीव धर्म-अधर्म को नहीं जानते हैं। इनका ज्ञान तो वेदवाक्यों से ही होता है ये धर्म-अधर्म आगम मात्र से ही गम्य हैं, इनको जानने वाला कोई भी नहीं है । अतः जगत में कोई भी सर्वज्ञ नहीं है।
इस प्रकरण को श्लोकवातिकालंकार ग्रंथ में स्वयं श्री विद्यानंदस्वामी ने प्रथम अध्याय के "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" सूत्र का भाष्य करते हुये कहा है कि
धर्मादन्यत्परिज्ञातं विप्रकृष्टमशेषतः ।
येन तस्य कथं नाम धर्मज्ञत्वं निषेधनं ॥२१॥ अर्थ-जिस महात्मा ने धर्म के अतिरिक्त स्वभाव से व्यवहित परमाणु आदिक, देश से व्यवहित सुमेरु आदिक, एवं काल से व्यवहित रामचंद्र आदिक अत्यंत परोक्ष पदार्थों को परिपूर्ण रूप से जान लिया है उस पुरुष को धर्म को जानने का निषेध भला कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि जो धर्म के सिवाय अन्य संपूर्ण पदार्थों को जान लेता है वह धर्म को भी अवश्य जान लेगा।
धर्म से भी सूक्ष्म पदार्थों तक को जानने वाला विद्वान् धर्म को जानने से बच नहीं सकता है। अतः सर्वज्ञ को धर्म के जानने का निषेध करना मीमांसकों को उचित नहीं है।
मीमांसक का जो यह कहना है कि प्रमाता-आत्मा संपूर्ण अतींद्रिय पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है, केवल अतींद्रिय पुण्य, पाप रूप धर्म, अधर्म को साक्षात् नहीं जानता है । "धर्मे चोदनेव प्रमाणं" धर्म का ज्ञान करने में वेदवाक्य ही प्रमाण है।
मीमांसक का यह सब कथन केवल न्यायमार्ग का अतिक्रमण कर रहा है क्योंकि न्याय की सामर्थ्य से उत्कृष्ट ज्ञान का स्वभाव संपूर्ण पदार्थों का जानना सिद्ध हो चूका है तो फिर ज्ञान अतींद्रिय पदार्थों में से केवल धर्म को ही क्यों छोड़ देगा? जल और स्थल सभी स्थानों में मेघ बरसते हैं,
। नन्वानन्दादिस्वभावोपि नास्तीत्यवाह ।-आनन्दादिस्वभावस्याप्रतिषेधादिति । 2 अप्रतिषेध्यत्वात् । यदि मुक्तात्मा चोदनाप्रामाण्यप्रतिबन्धविधायी न भवति तथाप्युक्तत्यायेन प्रमाणासिद्धिः स आनंदादिस्वभावः कस्माव प्रतिषिध्यते इत्याशंकायामाह भाट्टः अत्र प्रतिषिध्यादिति । धर्मज्ञत्वाभावात् प्रतिषेध्यात्वात् इति पा. दि. प्र.। 3 मुक्तात्मनि । 4 धर्मादन्यत् । (ब्या० प्र०)
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