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________________ ३१८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ४[ कर्मरहितोऽपि आत्मात्यंतपरोक्षपदार्थान् कथं जानीयात् ? ] ननु निरस्तोपद्रवः सन्नात्मा कथमकलंकोपि विप्रकर्षिणमर्थं प्रत्यक्षीकुर्यात् । न हि नयन निरस्तोपद्रवं विगलिततिमिरादिकलङ्कपटलमपि देशकालस्वभावविप्रकर्षभाजमर्थं प्रत्यक्षीकुर्वत् प्रतीतं, "स्वयोग्यस्यैवार्थस्य' तेन प्रत्यक्षीकरणदर्शनात् । निरस्तग्रहोपरा गाद्युपद्रवोपि दिवसकरः प्रतिहतघनपटलकलङ्कश्च स्वयोग्यानेव वर्तमानार्थान् प्रकाशयन्नुपलब्धो नातीतानागतानर्थानयोग्यानिति10 जीवोपि निरस्तरागादिभावकर्मोपद्रवः सन् विगलितज्ञानावरणादिद्रव्यकत्मिककलङ्कोपि च कथं विप्रकृष्टमर्थमशेषं प्रत्यक्षीक प्रभुः ? मुक्तात्मा भवन्नपि न चोदनाप्रामाण्यप्रतिबन्धविधायी, धर्मादौ तस्या एव प्रामाण्यप्रसिद्धेः मुक्तात्मनस्तत्राप्रमाणत्वात्तस्यानन्दादिस्वभावपरिणामेपि धर्मज्ञत्वाभावादप्रतिषे [कर्म से रहित भी आत्मा अत्यंत परोक्ष पदार्थों को कैसे जानेगा ? ] मीमांसक-संपूर्ण कर्मोपद्रव से रहित एवं कलंक से रहित होते हुये भी आत्मा परोक्ष पदार्थों को कैसे प्रत्यक्ष करेगी ?* किसी भी प्रकार के उपद्रव, रोग-रतौंधी, मोतियाबिंदु, पीलिया आदि दोषों से रहित भी नेत्र देश काल और स्वभाव से परोक्षवर्ती-दूरवर्ती पदार्थों को प्रत्यक्ष करते हुये अनुभव में नहीं आता है। स्वयं अपने योग्य देश काल आदि से सन्निहित पदार्थों को ही वह नेत्र अपने प्रत्यक्ष का विषय बनाता है, ऐसा देखा जाता है। जैसे ग्रह, उपराग आदि उपद्रवों से रहित एवं मेघ पटल के कलंक से भी रहित होता हुआ सूर्य अपने योग्य ही वर्तमान पदार्थों को प्रकाशित करते हुये उपलब्ध हो रहा है, किंतु अपने अयोग्य भूत, भविष्यत् कालीन पदार्थों को प्रकाशित नहीं करता है। उसी प्रकार से जीव भी रागादिभाव कर्मों से रहित एवं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म कलंक से रहित होता हुआ भी परोक्षवर्ती अशेष पदार्थों को प्रत्यक्ष करने के लिए समर्थ कैसे हो सकता है ? अर्थात् कोई भी जीव कर्ममल से रहित मुक्त होकर भी संपूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है । इसीलिये मुक्तात्मा होते हुये भी वेद की प्रमाणता का विरोधी नहीं हो सकता है क्योंकि धर्म-अधर्म आदि अदृष्ट (परोक्ष) पदार्थों की व्यवस्था करने में वेदवाक्य ही प्रमाण है। उन धर्मादि पदार्थों को जानने में मक्तात्मा के अप्रमाणता है क्योंकि आनंदादि स्वभाव रूप परिणाम के होने पर भी उनमें धर्मज्ञता का अभाव है । अतः आनंदादि स्वभाव का प्रतिषेध नहीं हो सकता है। अर्थात् यदि कहा जावे कि मुक्तात्मा में धर्मज्ञता न होने से आनंदादि स्वभाव भी नहीं होने चाहिये, किंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उनमें आनंदादि स्वभाव पाया जाता है। 1 मीमांसकः। 2 अज्ञानादिदोषः । (ब्या० प्र०) 3 कलंक द्रव्यकर्मज्ञानावरणादि । (ब्या० प्र०) 4 शूलादि । (ब्या०प्र०) 5 विप्रकर्षशब्दो देशकालस्वभावशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते। 6 देशकालाद्यविप्रकृष्टस्य। 7 संबद्धवर्तमान । (ब्या० प्र०) 8 ग्रहण । (ब्या० प्र०) 9 च इति अधिको पा(मा० प्र०) 10 अरूपिणो वा। (ब्या० प्र०) 11 धर्मादिस्थापने। 12 चोदनायाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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