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अष्टसहस्री
सर्वज्ञ के दोषावरण के अभाव का सारांश
हे भगवन् ! सभी के आगम में परस्पर विरोध होने से सभी आप्त नहीं हो सकते हैं किन्तु कोई एक ही आत महान् हो सकते हैं वे आप ही संसारी जीवों के स्वामी हैं आपके ही अत्यंत रूप से दोष और आवरण की हानि -क्षय होने से तथा अशेष तत्त्वों के ज्ञाता होने से आप ही महान् हैं क्योंकि दोष और आवरण की हानि होने से ही हम लोगों में कुछ-कुछ अंशों में निर्दोषता एवं क्षयोपशमजन्य कुछ-कुछ ज्ञान देखा जाता है । अतएव वह हानि किसी जीव विशेष में परिपूर्ण रूप से हो सकती है जैसे स्वर्ण पाषाण दो, तीन आदि ताव से १६ ताव पर्यंत निःशेष रूप से शुद्ध होता है। और उसमें किट्ट- कालिमा का भी सर्वथा क्षय-नाश देखा जाता है ।
ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्म को आवरण कहते हैं एवं कर्मोदय से होने वाले मोह रागादि परिणाम रूप भावकर्म को दोष कहते हैं ।
[ कारिका ४
द्ध का कहना है कि अज्ञानादि स्वपरिणाम हेतुक हैं एवं सांख्य का कहना है कि अज्ञानादि प्रधान के होने के कारण पर परिणाम हैं, किंतु सर्वथा यदि अज्ञानादि को स्वपरिणाम ही मानों तो जीवत्व आदि निजी स्वभाव के समान होने से उनका कभी भी अभाव नहीं हो सकेगा पुनः मुक्ति का ही अभाव हो जावेगा तथा सर्वथा परनिमित्तक होने से मुक्तात्मा में भी अज्ञानादि दोष होने लगेंगे । इसलिये दोष जीव के स्वपर परिणाम निमित्तक ही हैं क्योंकि कार्य हैं ।
तथा च दोष और आवरण में बीजांकुर न्याय के समान परस्पर में कार्य कारण भाव सिद्ध है जैसे जीव के ज्ञानावरण के उदय से अज्ञान दर्शन मोह के उदय से मिथ्यात्व आदि भाव होते हैं एवं दोष के प्रति आवरण भी कारण हैं । तत्प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य आदि से केवली, श्रुत, संघ आदि के अवर्णवाद से ज्ञानावरण, दर्शनमोहनीय आदि कर्मों का आश्रव होता है । अतएव परस्पर में कार्यकारणभाव सिद्ध है ।
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यहाँ दोष और आवरण की हानि से प्रध्वंसाभाव को ग्रहण किया है । अत्यंताभाव को नहीं । यदि जीव में दोष आवरण का अत्यंताभाव मानों तब तो संसार अवस्था में भी जीव के मुक्ति का प्रसंग आ जावेगा । आत्मा दोष और आवरण रूप नहीं है तथा दोष और आवरण आत्मा रूप नहीं है । यह इतरेतराभाव आत्मा का प्रसिद्ध ही है । तथा प्रागभाव भी यहाँ साध्य नहीं है क्योंकि प्राक्- पहले अविद्यमान रूप दोष आवरणों की अपने कारणों से आत्मा में उत्पत्ति स्वीकार की गई है ।
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