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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३१५ [ दोषावरणे पर्वत इव विशाले स्तः ] इत्यावरणस्य' द्रव्यकर्मणो दोषस्य च भावकर्मणो भूभृत इव महतोत्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कर्मभूभृतां भेत्ता मोक्षमार्गस्य प्रणेता स्तोतव्यः समवतिष्ठते विश्वतत्त्वानां ज्ञाता च । तथा इस बात को भी सिद्ध किया है कि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से सत् रूप मत्यादि पर आवरण है और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से असत रूप मति ज्ञानादि पर आवरण है यही कथन श्रेयस्कर है। पूनः प्रश्न होता है कि "अभव्यस्योत्तरावरणद्वयानुपपत्तिस्तदभावात्" अर्थात् अभव्य जीव में मनःपर्यय ज्ञानावरण एवं केवलज्ञानावरण सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि उनमें इन दोनों ज्ञानों का अभाव है और यदि इन दोनों ज्ञानों का सद्भाव मानोगे तो वह जीव अभव्य नहीं रहेगा किन्तु भव्य ही हो जावेगा। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं कहना क्योंकि "द्रव्यार्थादेशेन सतोर्मनःपर्ययकेवलज्ञानयोरावरणं, पर्यायार्थादेशेनासतोः" अर्थात् द्रव्याथिकनय से अभव्य में सत्रूप-विद्यमान मनःपर्यय केवलज्ञान पर आवरण है एवं पर्यायाथिक नय से असत रूप दोनों ज्ञानों पर आवरण होता है. इतने मात्र से ही अभव्य जीव में मनःपर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान का प्रसंग नहीं आता है क्योंकि जिस जीव में सम्यग्दर्शनादि पर्याय को प्रगट कर लेने की योग्यता है वह भव्य है उससे विपरीत अभव्य है । शक्ति रूप भव्य-अभव्य दोनों में ही मनःपर्यय एवं केवलज्ञान विद्यमान हैं किन्तु उनकी व्यक्ति-प्रगटता भव्यों के ही हो सकती है, अभव्यों के नहीं हो सकती है। इसी को आगे १०० वी कारिका में कहा है कि "शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साधनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥१००॥" इसी प्रकार से सभी आत्मा में ज्ञानादि गुण स्वभाव की सिद्धि हो जाने पर एवं दोष स्वभाव की सिद्धि न है न होने पर दोषों को कादाचित्कपना सिद्ध हो जाता है और वह कदाचित्कत्व ही आगंतुकपने को सिद्ध कर देता है इसीलिये वह आगंतक मल ही परिक्षयी है क्योंकि वह अपने विनाश के कारणों के वृद्धिंगत हो जाने से विनाश को प्राप्त होता ही है इस प्रकार से स्पष्टतया प्रतोति में आ रहा है एवं दोष के विनाश के निमित्त सम्यग्दर्शन आदिकों की विशेष रूप से वृद्धि सिद्ध ही है। [ दोष, आवरण पर्वत के समान विशाल हैं ] इस प्रकार विशाल पर्वत के समान आवरण रूप द्रव्य कर्म का और अज्ञानादि रूप भाव कर्म का अत्यन्त विनाश सिद्ध हो जाने से कोई "कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाला एवं मोक्षमार्ग का प्रणयन करने वाला और अखिल तत्त्वों को जानने वाला आप्त स्तवन करने योग्य है यह बात सम्यकप्रकार से स्थित हो जाती है।" 1 ज्ञानावरणस्य । 2 अज्ञानादेः। 3 मोक्षमार्गस्य प्रणेता अर्हन् कर्मभूभृतां भेत्ता इति स्तोतव्यः विश्वतत्वानां ज्ञातेति च दि.प्र.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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