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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६३ [ दोषावरणयोर्हानिः प्रध्वंसाभावरूपोऽस्ति न त्वत्यंताभावरूपा ] अत एव लोष्टादौ निश्शेषदोषावरण निवृत्तः सिद्धसाध्यतेत्यसमीक्षिताभिधानं,
उत्तर-अनादि कर्मबंधन के कारण उसमें विशेष शक्ति आ जाती है । अनादि पारिणामिक चैतन्यवान् आत्मा की नारकादि, मतिज्ञानादि पर्यायें भी चेतन ही हैं। यह आत्मा अनादिकाल से कार्मण शरीर के कारण मूर्तिमान् हो रहा है और इसीलिए उस पर्याय संबंधी शक्ति के कारण मूर्तिक कर्मों को ग्रहण करता है । आत्मा कर्मबद्ध होने से कथंचित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण अमूर्तिक है । जिस प्रकार मदिरा को पीकर मनुष्य मूछित हो जाता है, उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है उसी प्रकार कर्मोदय से आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं। मदिरा के द्वारा इन्द्रियों में विभ्रम या मूर्छा आदि मानना ठीक नहीं है क्योंकि जब इन्द्रियाँ अचेतन हैं तो अचेतन में बेहोशी आ नहीं सकती अन्यथा जिस पात्र में मदिरा रखी है उसे ही मूच्छित हो जाना चाहिए या उन्मत्त चेष्टा करना चाहिये। यदि इन्द्रियों को चेतन कहेंगे तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि बेहोशी चेतन में होती है न कि अचेतन में। इसलिये यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संसारी आत्मा मूर्तिक है
बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो होदि तस्स णाणत्तं ।
तम्हा अमुत्तिभावो णेयंतो होदि जीवस्स ॥ अर्थ-बंध की दृष्टि से आत्मा और कर्म में एकत्व होने पर भी लक्षण की अपेक्षा से दोनों में भिन्नता है । अतः आत्मा में एकांत से अमूर्तिकपना नहीं है। इसी बात को श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने भी कहा है कि
वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे ।
णो संत्ति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्तिबंधादो। अर्थ-पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श निश्चय नय से ये जीव में नहीं हैं इसलिये यह जीव अमूर्तिक है एवं व्यवहार नय से कर्मबंध से सहित होने से यह जीव मूर्तिक है। इसलिये जीव को संसारावस्था में सर्वथा अमूर्तिक मानना गलत है।
[ दोष, आवरण की हानि प्रध्वंसाभाव रूप है अत्यंताभाव रूप नहीं है ] प्रश्न-अतएव इसी “अतिशायनात्" हेतु के द्वारा लोष्टादिक (मिट्टी के ढेले आदि) में भी निःशेष रूप से दोष आवरण की निवृत्ति होने से सिद्धसाध्यता नाम का दोष आता है* अर्थात् सिद्ध को ही सिद्ध करना यह पिष्टपेषण के सदृश दोष युक्त ही है। 1 अतिशायनादेव । 2 कर्म । (ब्या० प्र०) 3 मीमांसकं निराचष्टे । (ब्या० प्र०) 4 बौद्धस्य ।
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