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________________ ( ३४ ) भर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्र में इस पृथ्वी पर साक्षात् बृहस्पति देव थे। अभिलेख नं० १०८ में पूज्यपाद के पश्चात् अकलंकदेव का स्मरण किया गया है "ततः परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरिः। मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलार्थाः, प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः ॥" इनके बाद शास्त्र ज्ञानी महामुनियों के अग्रणी श्री अकलंकदेव हुये जिनकी वचनरूपी किरणों के द्वारा मिथ्यांधकार से ढके हुए अखिल पदार्थ प्रकाशित हुए हैं । इनका जीवन परिचय, समय, गुरुपरम्परा और इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इन चार बातों को संक्षेप से यहाँ दिखाया जायेगा। जीवन परिचय-तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अन्त में जो प्रशस्ति है उसके आधार से ये "लघुहब्वनृपति" के पुत्र प्रतीत होते हैं यथा "जीयाच्चिरमकलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनयः। अनवरतनिखिलजननुतविद्यः प्रशस्तजनहृद्यः ॥" लघुहव्वनृपति के श्रेष्ठ पुत्र अकलंक ब्रह्मा चिरकाल तक जयशील होवें, जिनको हमेशा सभी जन नमस्कार करते थे और जो प्रशस्तजनों के हृदय के अतिशय प्रिय हैं। ये राजा कौन थे ? किस देश के थे ? यह कुछ पता नहीं चल पाया है। हो सकता है ये दक्षिण देश के राजा रहे हों । श्री नेमिचन्द्रकृत आराधना कथाकोष में इन्हें मंत्रीपुत्र कहा है। यथा मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मन्त्री का नाम पुरुषोत्तम था उनकी पत्नी पद्मावती थीं। इनके दो पुत्र थे-अकलंक और निकलंक । एक दिन अष्टान्हिक पर्व में पुरुषोत्तम मंत्री ने चित्रगुप्त मुनिराज के समीप आठ दिन का ब्रह्मचर्य ग्रहण किया और उसी समय विनोद में दोनों पुत्रों को भी व्रत दिला दिया। जब दोनों पुत्र युवा हए तब पिता के द्वारा विवाह की चर्चा आने पर विवाह करने से इन्कार कर दिया। यद्यपि पिता ने बहुत समझाया कि तुम दोनों को व्रत विनोद में दिलाया था तथा वह आठ दिन के लिये ही था किन्तु इन युवकों ने यही उत्तर दिया कि-पिताजी ! व्रतग्रहण में विनोद कैसा? और हमारे लिये आठ दिन की मर्यादा नहीं की थी। पुनः ये दोनों बाल ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़प्रतिज्ञ हो गये और धर्माराधना में तथा विद्याध्ययन में तत्पर हो गये। ये बौद्ध शास्त्रों के अध्ययन हेतु "महाबोधि' स्थान में बौद्ध धर्माचार्य के पास पढ़ने लगे। एक दिन बौद्ध गुरु पढ़ाते-पढ़ाते कुछ विषय को नहीं समझा सके तो वे चिन्तित हो बाहर चले गये। वह प्रकरण सप्तभंगी का था, अकलंक ने समय पाकर उसे देखा, वहाँ कुछ अशुद्ध पाठ समझकर उसे शुद्ध कर दिया। वापस आने पर गुरु को शंका हो गई कि यहाँ कोई विद्यार्थी जैन धर्मी अवश्य है। उसकी परीक्षा की जाने पर ये अकलंक-निकलंक पकड़े गये। इन्हें जेल में डाल दिया गया। उस समय रात्रि में धर्म की शरण लेकर ये दोनों वहाँ से भाग निकले। प्रातः इनकी खोज शुरू हुई । नंगी तलवार हाथ में लिये घुड़सवार दौड़ाये गये । 1. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, अभिलेख १०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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