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( ३३ )
माया
समंतभद्र की रचनायें
१. वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २. स्तुतिविद्या-जिनशतक, ३. देवागमस्तोत्रआप्तमीमांसा, ४. युक्त्यनुशासन, ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. तत्त्वानुशासन, ८. प्राकृतव्याकरण, ६. प्रमाण पदार्थ, १०. कर्मप्राभृतटोका, ११. गंधहस्तिमहाभाष्य ।
१. "स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले" आदि रूप से स्वयंभूस्तोत्र, धर्मध्यान दीपक आदि पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है । यह सटीक भी छप चुका है ।
२. "स्तुतिविद्या" इसमें भी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है जो कि एक अक्षर, दो अक्षर आदि के श्लोकों में अथवा मुरजबंध, हारबंध आदि चित्रकाव्यरूप श्लोकों में एक अपूर्व ही रचना है।
३. इस देवागमस्तोत्र में सर्वज्ञदेव को तर्क की कसौटी पर कसकर सच्चा आप्त सिद्ध किया गया है। तत्कालीन नैरात्म्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष-प्रकृतिवाद आदि की समीक्षा करते हुये स्याद्वाद सिद्धान्त की प्रतिष्ठा जैसी इस ग्रन्थ में उपलब्ध है वैसी सप्तभंगी की सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र जैनवाङ्मय में आपको नहीं मिलेगी। यह स्तोत्र ग्रन्थ केवल तत्त्वार्थसूत्र के "मोक्षमार्गस्य""मंगलाचरण को आधार करके बना है। इसी स्तोत्र पर अकलंक देव ने अष्टशती नाम का भाष्य ग्रन्थ बनाया है और विद्यानंद आचार्य ने अष्टसहस्री नाम का जैन दर्शन का सर्वोच्च ग्रन्थ निमित किया है।
४. युक्त्यनुशासन में भी परमत का खंडन करते हुये आचार्यदेव ने वीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ घोषित किया है।
५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार में तो १५० श्लोकों में ही आचार्यदेव ने श्रावकों के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन कर दिया है । इसमें अतिथिसंविभाग व्रत के स्थान पर वैथावृत्य का सुन्दर स्वरूप बतलाकर इसी व्रत में देव पूजा को भी ले लिया है।
आगे की ७ रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं।
इस प्रकार से भी समंतभद्राचार्य अपने समय में एक महान आचार्य हए हैं। इनकी गौरव गाथा गाने के लिये हम और आप जैसे साधारण लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं । कहीं-कहीं इन्हें भावी तीर्थंकर माना गया है ।
श्री अकलंकदेव आचार्य
जैन दर्शन में अकलंकदेव एक प्रखर तार्किक और महान दार्शनिक हुये हैं । बौद्ध दर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है, जैन दर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है। इनके द्वारा रचित प्रायः सभी प्रन्थ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं।
श्री अकलंकदेव के सम्बन्ध में श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेख संख्या ४७ में लिखा है
षट्तर्केष्वकलंकदेव विबुधः साक्षादयं भूतले ।
1. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, अभिलेख ४७ ।
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