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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २६१ सर्वत्राप्यविशेषातदभावे दर्शनं 'नादर्शनमतिशेतेऽनाश्वासाद्विभ्रमवत् ।* 'स्यान्मतं "मा सिधत्सर्वज्ञस्य निराकरणात्पूर्वं सुनिश्चितासंभवत्साधकप्रमाणत्वं' स्वप्रत्यक्षस्य सर्वज्ञान्तरप्रत्यक्षस्य च 'तत्साधकस्य संभवात्, परोपदेशलिङ्गाक्षानपेक्षा वितथाऽशेष सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकतद्वचनविशेषात्मकलिङ्गजनितानुमानस्य च तत्साधकस्य 1सद्भावादनादिप्रवचनविशेषस्य च तदुद्द्योतितस्य तत्साधकत्वेन सिद्धेः । 16निराकरणादुत्तरकालं तु सिद्धमेव'' इति । तदपि स्वमनोरथमात्रं, सर्वज्ञनिराकृतेरयोगात् सर्वथा बाधकाभावात् । न सही किन्तु आपका जो कहना है कि स्वप्रत्यक्ष-स्वयं सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष और सर्वज्ञांतर प्रत्यक्ष-भिन्न सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष ज्ञान उस सर्वज्ञ के साधक संभव है । परोपदेश हेतु और इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित अवितथसत्य, अशेष सूक्ष्मादि पदार्थ के प्रतिपादक, उनके वचन विशेषात्मक हेतु से उत्पन्न हुये अनुमान उस सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले मौजूद हैं और उस सर्वज्ञ से उद्योतित अनादि आगम विशेष भी सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला प्रसिद्ध है । इस प्रकार से सर्वज्ञ की सिद्धि जो आपने की है उस सर्वज्ञ के निराकरण के अनंतर उत्तर काल में वह हमारा “सुनिश्चितासंभवद्साधक प्रमाणत्व" सिद्ध ही है जो कि अभाव प्रमाण रूप है । अर्थात् मीमांसक का कहना है कि आप जैन जो सर्वज्ञ के अस्तित्व को प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से सिद्ध करते हो एवं कहते हो कि मीमांसक का "सुनिश्चितासंभवत्साधक प्रमाण" उस सर्वज्ञ के अस्तित्व का बाधक नहीं है सो बात सिद्ध नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ के निराकरण के पहले हमारा सुनिश्चितासंभवत्साधक प्रमाण भले ही सिद्ध न हो किन्तु सत्ता को ग्रहण करने वाले पांचों प्रमाणों के द्वारा उस सर्वज्ञ का निराकरण कर देने पर हमारा सुनिश्चितासंभवत्साधक प्रमाण रूप हेतु सिद्ध ही हो जाता है । सुनिश्चित रूप से असंभव है सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला प्रमाण जिसमें उसे "सुनिश्चितासंभवत्साधकप्रमाण" कहते हैं एवं सुनिश्चित रूप से असंभव है बाधक प्रमाण जिसमें उसे 'सुनिश्चितासंभवद् बाधक प्रमाण" कहते हैं और सुनिश्चितासंभवत्साधकप्रमाण-अभाव प्रमाण से हम सर्वज्ञ का अभाव कर देते हैं। जैन - यह कथन भी स्वमनोरथ मात्र ही है क्योंकि सर्वथा बाधक का अभाव होने से सर्वज्ञ के निराकरण का अभाव ही है। 1 दर्शने दर्शनाभावे वा (सर्वज्ञस्य) सत्यदर्शने असत्यदर्शने च वा। 2 अविशेषात्सर्वत्रापि सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणस्याभावे इत्यर्थः । 3 प्रत्यक्षम् । 4 प्रत्यक्षाभासं । (ब्या० प्र०) 5 भ्रांतिज्ञानवत् । (ब्या० प्र०) 6 मीमांसकस्य । 7 कुतः । (ब्या० प्र०) 8 सर्वज्ञस्य । (ब्या० प्र०) 9 सर्वज्ञसाधकस्य । 10 अन्तरितदूरमिति । क्रियाविशेषणमेतत् । 11 अंतरितदूर । (ब्या० प्र०) 12 स सर्वज्ञः। 13 संभवादनादि इति पा० । (ब्या० प्र०) 14 अर्थरूपस्य । (ब्या० प्र०) 15 स सर्वज्ञः । 16 सर्वस्य । (ब्या० प्र०) 17 सिद्धान्ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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